Tuesday, November 11, 2008

धर्मपाल 'अनवर' की ग़ज़लें और परिचय













श्री धर्मपाल 'अनवर' हिन्दी,पंजाबी और उर्दू भाषाओं में
समान अधिकार के साथ ग़ज़ल कहते हैं । 'तनहा ज़िन्दगी' (उर्दू ग़ज़ल संग्रह-2002) ,'मैं ,तड़प और ज़िन्दगी' (हिन्दी ग़ज़ल संग्रह-2008), 'पीड़ाँ दी पगडंडी' (पंजाबी लघु कथा संकलन-2008) और 'शाम दी दहलीज़ ते' (पंजाबी ग़ज़ल संग्रह-2005) इन की अब तक प्रकाशित पुस्तकें हैं आप अमलोह, ज़िला फ़तेहगढ़ साहिब (पंजाब) में रहते हैं।
प्रस्तुत हैं श्री धर्मपाल 'अनवर' की चार ग़ज़लें जो उनके हाल ही में प्रकाशित हिन्दी ग़ज़ल संग्रह 'मैं ,तड़प और ज़िन्दगी' से हैं:

१.







बात सच्ची जो कह दे सभी को
कौन चाहेगा उस आदमी को

देखकर आज की दोस्ती को
शर्म आने लगी दोस्ती को

सब ही मतलब के रोने हैं रोते
कौन रोता है अब आदमी को

देखने को तो सब ख़ुश हैं यारो
सब तरसते हैं लेकिन ख़ुशी को

आँखें रो-रो के पथरा गई हैं
होंठ तरसें किसी के हँसी को

रातें रंगीं यहाँ हैं किसी की
दिन में तरसे कोई रोशनी को

पाए यह दिल सुकूँ जिससे 'अनवर'
कर ले हासिल तू उस आगही को.

212,212,212,2
**

२.








ज़िन्दगी से रोज़ो-शब मरते रहे
मौत से लेकिन सदा डरते रहे

वो भला मंज़िल पाते किस तरह
ख़्वाब में ही जो सफ़र करते रहे

परदे के पीछे किये ज़ुल्मो-सितम
दम शराफ़त का मगर भरते रहे

पूछिए उनसे तरक्की देश की
भूखे रह कर जो गुज़र करते रहे

अम्न का उपदेश देकर दोस्तो
आप ख़ुद फ़ितनागरी करते रहे

पेट 'अनवर' हसरतों की भूख का
मुद्दतों वादों से वो भरते रहे.
2122,2122,212
**
३.









ढक सके न जिस्म को जो पैरहन
आबरू कि लाश का वो है क़फ़न

धुन्ध वो मायूसियों की आ गई
आस की दिखती नहीं कोई किरन

थे चहकते दिल में जो अरमा कहीं
आज सीने में वो कर डाले दफ़न

दनदनाते देखी अक्सर है क़ज़ा
ज़िन्दगी महसूस करती है घुटन

ख़ार तो बदनाम यूँ ही हो गये
ज़ख़्म देते हैं दिलों को गुलबदन

है भँवर में अब भी कश्ती देश की
नाख़ुदाओं का रहा ऐसा चलन

देख 'अनवर' चन्द सिक्कों के लिए
बेच देते हैं कई अपना वतन.

2122,2122,212
**
४.









सह के दुख भी जो हँसती रही है
नाम उसका ही तो ज़िन्दगी है

कौन आएगा तुझ को मनाने
सूनी राहों को क्या देखती है

क्या तू समझाए दुनिया को नादाँ
तुझसे ज़्यादा यह ख़ुद जानती है

मोल हर साँस का तो बहुत है
ज़िन्दगी फिर भी सस्ती बड़ी है

रंग जैसा है जिस आईने का
उसमें वैसी ही दुनिया दिखी है

नाम उल्फ़त नहीं है हवस का
ये तो महबूब की बंदगी है

इश्क़ आसाँ नहीं इतना 'अनवर'
जिसको कहते हैं आफ़त यही है.

212,212,212,2

6 comments:

Udan Tashtari said...

धर्मपाल जी की गज़लें पढ़वाने का आभार. बहुत आनन्द आया.

Anonymous said...

Dharmpal jee kee gazlen achchhee
hain.Unhen padhvaane kaa bahut
shukria.

गौतम राजऋषि said...

शुक्रिया सतपाल जी इन दुर्ल्भ गज़लों से वास्ता कराने के लिये

महावीर said...

श्री धर्मपाल 'अनवर' की गज़लें पढ़ कर आनंद आगया।
बात सच्ची जो कह दे सभी को
कौन चाहेगा उस आदमी को।

पेट 'अनवर' हसरतों की भूख का
मुद्दतों वादों से वो भरते रहे।

चारों ग़ज़लें निहायत ख़ूबसूरत हैं।

योगेन्द्र मौदगिल said...

बेहतरीन............
शुक्रिया...

प्रदीप कांत said...

बात सच्ची जो कह दे सभी को
कौन चाहेगा उस आदमी को

Achchhi gazalei