आदाब !
मुशायरे मे आए सभी शायरों / ग़ज़लकारों का मैं स्वागत करता हूँ . आज हमारे बीच बैठे हैं: सर्व श्री बृज कुमार अग्रवाल , कृश्न कुमार “तूर” , सरवर राज़ ‘सरवर’ सुरेश चन्द्र “शौक़” , प्राण शर्मा , महावीर शर्मा ,चाँद शुक्ला हादियाबादी , द्विजेन्द्र ‘द्विज’, अहमद अली बर्क़ी आज़मी, डा. प्रेम भारद्वाज ,पवनेंद्र ‘पवन’ ,ज़हीर कुरैशी , देव मणि पाँडे , नीरज गोस्वामी, देवी नांगरानी ,अमित रंजन ,नवनीत शर्मा ,दीपक गुप्ता, और विजय धीमान । कोशिश की है कि इस मुशायरे में आज की ग़ज़ल में प्रकाशित तमाम शायरों को एक साथ पेश करूँ और इसके अलावा कुछ ऐसे शायर भी जो पहले आज की ग़ज़ल में पहले नहीं आए. आशा करता हूँ कि आप सब को ये प्रयास पसंद आयेगा.
सबसे पहले मैं कृश्न कुमार “तूर” साहब को दावते क़लाम देना चाहता हूँ। जिनका क़लाम देश-विदेश के उर्दू-हिंदी रिसालों की ज़ीनत बनता है । कृश्न कुमार “तूर” साहब से गुज़ारिश है कि मुशायरे का आग़ाज़ अपने क़लाम से करें
कृश्न कुमार “तूर” साहब
अना का दायरा टूटे तो मैं दिखाई दूँ
वह अपनी आँख को खोले तो मैं दिखाई दूँ
हूँ उसके सामने लेकिन नज़र नहीं आता
वह मुझको देखना चाहे तो मैं दिखाई दूँ
मैं अपने आपको देखूँ तो वो दिखाई दे
वो अपने आपको देखे तो मैं दिखाई दूँ
बुलन्दियों से उसे मैं नज़र न आऊँगा
फ़राज़ से जो वो उतरे तो मैं दिखाई दूँ
है “तूर” उसकी नज़र ख़ुद ही उसपे बार अब तो
वो मेरे सामने आए तो मैं दिखाई दूँ
वाह-वाह तूर साहब! कया ख़ूब क़लाम है। इस ग़ज़ल के “मैं” को आपने कितने कुशादा माअनी अता फ़रमाए हैं ।
अब मुशायरे को एक खूबसूरत शेर के साथ और आगे बढ़ाते हैं। शे’र मुलाएज़ा फ़रमाने का है:
दिन गुज़रता है मेरा बुझ-बुझ कर
शाम को ख़ूब जगमगाता हूँ
इस फ़क़ीर शायर की शायरी भी दिन—रात जगमगाने वाली शायरी है। दावते—सुख़न दे रहा हूँ जनाब—ए—सुरेश चन्द्र “शौक” साहब को।आप अपने फ़न का जादू देश-विदेश के कोने- कोने में बिखेर चुके हैं । और नये लिखने वालों के लिए एक प्रेरणा स्त्रोत हैं :
सुरेश चन्द्र “शौक”:
ग़ज़ल पेश है:
चुप है हर वक़्त का रोने वाला
कुछ न कुछ आज है होने वाला
एक भी अश्क नहीं आँखों में
सख़्त-जाँ कितना है रोने वाला
आज काँटों का भी हक़दार नहीं
हार फूलों के पिरोने वाला
खो गया दर्द की तस्वीरों में
प्यार के रंग भिगोने वाला
फ़स्ल अश्कों की उग आई कैसे
क्या कहे क़हक़हे बोने वाला
बाँटता फिरता है औरों को हँसी
ख़ुद को अश्कों में डुबोने वाला
मुतमुइन अब हैं यही सोच के हम
हो रहेगा है जो होने वाला
'शौक़'!तुम जिसके लिए मरते हो
वो तुम्हारा नहीं होने वाला ।
रोते फिरते हैं सारी सारी रात,
अब यही रोज़गार है अपना
कुछ नहीं हम मिसाल-ऐ- उनका लेक
शहर शहर इश्तिहार है अपना
इसी टीस, इसी दर्द और इसी कमाल का नाम है ग़ज़ल. सीधी सी बात को कमाल से कह जाना ही ग़ज़ल है. मीर के इन अशआर के बाद मैं सरवर साहब को मंच पर बुलाता हूँ कि वे अपना कलाम पढ़ें :
सरवर राज़ साहब:
कूचा-कूचा , नगर-नगर देखा
खुद में देखा उसे अगर देखा.
किस्सा-ए-जीस्त मुख़्तसर देखा
जैसे इक ख़्वाब रात भर देखा.
दर ही देखा न तूने घर देखा
जिंदगी ! तुझको खूब कर देखा.
कोई हसरत रही न उसके बाद
उसको हसरत से इक नज़र देखा.
हमको दैरो-हरम से क्या निसबत
उस को दिल में ही जलवागर देखा.
हाले-दिल दीदानी मेरा कब था
देखता कैसे ? हाँ मगर देखा.
सच कहूँ बज़्मे-शे'र मे तुमने
कोई सरवर सा बे-हुनर देखा ?
बहुत शुक्रिया सरवर साहब!
न था कुछ तो ख़ुदा था, कुछ न होता तो ख़ुदा होता
डुबोया मुझ को होने ने, न होता मैं तो क्या होता
हुई मुद्दत के "ग़ालिब" मर गया पर याद आता है
वो हर एक बात पे कहना के यूँ होता तो क्या होता
इसी फ़कीरी का नाम शायरी है .और इस फ़कीर शायर के ज़िक्र के बाद अब मै मंच पर प्राण शर्मा जी को बुलाता हूँ. वो मंच पर आकर अपना कलाम पेश करें:प्राण जी ग़ज़ल में अपनी अनूठी भाषा के लिये जाने जाते हैं. गुजा़रिश करूँगा कि वो अपना कलाम पेश करें.
प्राण शर्मा:
आदाब!
मतला पेश कर रहा हूँ
खुशी अपनी करे साँझी बता किस से कोई प्यारे.
पड़ोसी को जलाती है पड़ोसी की खुशी प्यारे.
तेरा मन भी तरसता होगा मुझसे बात करने को
चलो हम भूल जायें अब पुरानी दुशमनी प्यारे
तुम्हारे घर के रौशनदान ही हैं बंद बरसों से
तुम्हारे घर नहीं आती करे क्या रौशनी प्यारे
सवेरे उठके जाया कर बगीचे में टहलने को
कि तुझमें भी ज़रा आए कली की ताज़गी प्यारे
कभी कोई शिकायत है कभी कोई शिकायत है
बनी रहती है अपनो की सदा नाराज़गी प्यारे.
कोई चाहे कि न चाहे ये सबके साथ चलती है
किसी की दुशमनी प्यारे , किसी की दोस्ती प्यारे
कोई शय छिप नही सकती निगाहों से कभी इनकी
ये आँखे ढूँढ लेती हैं सुई खोई हुई प्यारे.
बहुत खूब ! प्राण साहब, क्या बात है ! और अब मैं मंच पर सादर आमंत्रित कर रहा हूँ एक ऐसे रचनाकार को जो ब्लाग पर खूबसूरत मुशायरों के आयोजन के लिए चर्चित हैं । इनकी शायरी भी इनके द्वारा आयोजित मुशयरों की तरह ख़ूबसूरत है। आप हैं , महावीर शर्मा साहब, आइए, आपका स्वागत है :
तिरे सांसों की ख़ुशबू से ख़िज़ाँ की रुत बदल जाए,
जिधर को फैल जाए, आब-दीदा भी बहल जाए।
ज़माने को मुहब्बत की नज़र से देखने वाले,
किसी के प्यार की शमअ तिरे दिल में भी जल जाए।
मिरे तुम पास ना आना मिरा दिल मोम जैसा है,
तिरे सांसों की गरमी से कहीं ये दिल पिघल जाए।
कभी कोई किसी की ज़िन्दगी से प्यार न छीने,
वो है किस काम का जिस फूल से ख़ुशबू निकल जाए
तमन्ना है कि मिल जाए कोई टूटे हुए दिल को,
बनफ़शी हाथों से छू ले, किसी का दिल बहल जाए।
ज़रा बैठो, ग़मे-दिल का ये अफ़साना अधूरा है,
तुम्हीं अनजाम लिख देना, मिरा गर दम निकल जाए।
मिरी आंखें जुदा करके मिरी तुर्बत पे रख देना,
नज़र भर देख लूं उसको, ये हसरत भी निकल जाए।
महावीर शर्मा साहब आपका बहुत—बहुत शुक्रिया ।
अब दावते सुख़न दे रहा हूँ डा. अहमद अली बर्क़ी आज़मी साहब को।
डा. बर्क़ी की शायरी अपने क्लासिकल अंदाज़ के लिए जानी जाती है:
डा. अहमद अली बर्क़ी आज़मी :
हैं किसी की यह करम फर्माइयाँ
बज रही हैँ ज़ेहन मेँ शहनाइयाँ
उसका आना एक फ़ाले नेक है
ज़िंदगी में हैं मेरी रानाइयाँ
मुर्तइश हो जाता है तारे वजूद
जिस घड़ी लेता है वह अंगडाइयाँ
उसकी चशमे नीलगूँ है ऐसी झील
जिसकी ला महदूद हैं गहराइयाँ
चाहता है दिल यह उसमें डूब जाएँ
दिलनशीं हैं ये ख़याल आराइयाँ
मेरे पहलू में नहीं होता वह जब
होती हैं सब्र आज़मा तन्हाइयाँ
तल्ख़ हो जाती है मेरी ज़िंदगी
करती हैं वहशतज़दा परछाइयाँ
इश्क़ है सूदो ज़ियाँ से बेनेयाज़
इश्क़ मे पुरकैफ़ हैँ रुसवाइयाँ
वलवला अंगेज़ हैं मेरे लिए
उसकी “बर्क़ी” हौसला अफज़ाइयाँ
बर्क़ी साहब , कलाम पेश करने के लिए हम आपके शुक्रगुज़ार हैं।
ख्वाजा मीर दर्द का अपना अंदाज़ था वो बातचीत की तरह ग़ज़ल कहते थे.ये अंदाजे़-बयां ही है जो हमे एक -दूसरे से जुदा करता है , बातें तो वही हैं , मसले भी वही हैं , ऐसा कोई विषय नही होगा जो कहा न गया हो. बस शायर अपने अंदाज़ से उसको जुदा कर देता है. अब मैं मंच पर सादर आमंत्रित करता हूँ आदरणीय बृज कुमार अग्रवाल साहब को । अग्रवाल साहब ग़ज़ल में अपने अलग अंदाज़े-बयाँ के लिए जाने जाते हैं:
बृज कुमार अग्रवाल :
जब नहीं तुझको यक़ीं अपना समझता क्यूँ है ?
रिश्ता रखता है तो फिर रोज़ परखता क्यूँ है ?
हमसफ़र छूट गए मैं जो तेरे साथ चला
वक़्त! तू साथ मेरे चाल ये चलता क्यूँ है ?
मैंने माना कि नहीं प्यार तो फिर इतना बता
कुछ नहीं दिल में तो आँखों से छलकता क्यूँ है ?
कह तो दी बात तेरे दिल की तेरी आँखों ने
मुँह से कहने की निभा रस्म तू डरता क्यूँ है ?
दाग़-ए-दिल जिसने दिया ज़िक्र जब आए उसका
दिल के कोने में कहीं दीप- सा जलता क्यूँ है ?
रख के पलकों पे तू नज़रों से गिरा देता है
मैं वही हूँ तेरा अन्दाज़ बदलता क्यूँ है ?
वाह-वाह क्या बात है !
“पंख कुतर कर जादूगर जब चिड़िया को तड़पाता है
सात समंदर पार का सपना , सपना सपना ही रह जाता है.”
इस शायर का नाम मैं मुशायरे के अंत मे बताऊंगा लेकिन एक बात तो तय है दर्द का दरिया पार किये बिना कोई शायर नहीं बन सकता.यही दर्द और टीस कुंदन बन कर ग़ज़लों मे उतरता है.देर न करते हुए मैं मंच पर देव मणि पाँडे साहेब को बुलाता हूँ.एक अच्छे गीतकार भी हैं पाँडे जी, पिंज़र के लिए गीत भी लिखे हैं इन्होनें. आइए देव मणि जी:
देव मणि पाँडे :
मतला पेश कर रहा हूँ:
दिल ने चाहा बहुत पर मिला कुछ नहीं
ज़िन्दगी हसरतों के सिवा कुछ नहीं
उसने रुसवा सरेआम मुझको किया
उसके बारे में मैंने कहा कुछ नहीं
इश्क़ ने हमको सौग़ात में क्या दिया
ज़ख़्म ऐसे कि जिनकी दवा कुछ नहीं
पढ़के देखीं किताबें मोहब्बत की सब
आँसुओं के अलावा लिखा कुछ नहीं
हर ख़ुशी मिल भी जाए तो क्या फ़ायदा
ग़म अगर न मिले तो मज़ा कुछ नहीं
ज़िन्दगी ये बता तुझसे कैसे मिलें
जीने वालों को तेरा पता कुछ नहीं
**
वाह ! वाह !वाह! अमीर खुसरो जी ने भी हाथ अजमाया इस विधा में और आने वाले कल के लिये एक नींव डाली.और अब मै ज़हीर कुरैशी साहेब को मंच पर बुलाता हूँ कि वो अपनी ग़ज़ल सुनाएँ हिन्दी सुभाव की ग़ज़ल में अपने अलग मुहावरे के लिए जाने जाते हैं ज़हीर कुरेशी साहब.
ज़हीर कुरैशी :
वे शायरों की कलम बेज़ुबान कर देंगे
जो मुँह से बोलेगा उसका 'निदान' कर देंगे
वे आस्था के सवालों को यूं उठायेंगे
खुदा के नाम तुम्हारा मकान कर देंगे
तुम्हारी 'चुप' को समर्थन का नाम दे देंगे
बयान अपना, तुम्हारा बयान कर देंगे
तुम उन पे रोक लगाओगे किस तरीके से
वे अपने 'बाज' की 'बुलबुल' में जान कर देंगे
कई मुखौटों में मिलते है उनके शुभचिंतक
तुम्हारे दोस्त, उन्हें सावधान कर देंगे
वे शेखचिल्ली की शैली में, एक ही पल में
निरस्त अच्छा-भला 'संविधान' कर देंगे
तुम्हें पिलायेंगे कुछ इस तरह धरम-घुट्टी
वे चार दिन में तुम्हें 'बुद्धिमान' कर देंगे
वाह ! वाह! इन दियों को हवाओं में रखना ।
एक और अज़ीम शख़्सियत हमारे मुशायरे को ज़ीनत अता फ़रमा रही है और उस का नाम है ‘चाँद’ शुक्ला हादियाबादी। आप रेडियो सबरंग , डेनमार्क के डायेरेक्टर हैं
इन दियों को हवाओं में रखना
हमको अपनी दुआओं में रखना
वो जो वाली है दो जहानों का
उसको दिल की सदाओं में रखना
कोई तुम से वफ़ा करे न करे
नेक नीयत वफ़ाओं में रखना
हुस्न और इश्क़ उसकी नेमत हैं
तू हुनर इन अदाओं में रखना
हर तमन्ना गुलाब-सी महके
चाँद-तारों की छाओँ में रखना
खूब सूरत क़लाम के लिए शुक्रिया !
और अब मैं नीरज गोस्वामी जी को अपने क़लाम का जादू जगाने के किए लिए आमंत्रित करता हूँ।
नीरज गोस्वामी :
प्यार की तान जब सुनाई है
भैरवी हर किसी ने गाई है
लाख चाहो मगर नहीं छुपता
इश्क में बस ये ही बुराई है
खवाब देखा है रात में तेरा
नींद में भी हुई कमाई है
बाँध रक्खा है याद ने हमको
आप से कब मिली रिहाई है
जीत का मोल जानिए उस से
हार जिसके नसीब आई है
चाहतें मेमने सी भोली हैं
पर जमाना बड़ा कसाई है
आस छोडो नहीं कभी "नीरज"
दर्दे दिल की यही दवाई है.
बहुत ख़ूब, भाई नीरज जी!
अब मैं डा. प्रेम भारद्वाज को सादर आमंत्रित करता हूँ कि वे अपनी ग़ज़ल हमें सुनाएँ।
डा. प्रेम भारद्वाज:
मैं मिट कर जब हम हो जाए
दर्दे-दुनिया कम हो जाए
टूटे हैं मरहम हो जाए
फूलों पर शबनम हो जाए
गीत बहारों के गा कर ही
पतझड़ का मातम हो जाए
जीवन की उलझन के चलते
सीधा-सा हमदम हो जाए
क्या कहने,गर ठोस हक़ीक़त
ज़ुल्फ़ों का बस ख़म हो जाए
ख़ुशियाँ हों या ग़म के क़िस्से
पीने का आलम हो जाए
दाद नहीं कुछ इसके आगे
आँख झुके और नम हो जाए
रिश्तों के बंधन में आकर
प्रेम करें तो ग़म हो जाए
खूबसूरत ग़ज़ल के लिए शुक्रिया।
पवनेंद्र पवन साहब भी मुशायरे में आ चुके हैं.उनसे भी अनुरोध कि वे अपनी ग़ज़ल प्रस्तुत करें
पवनेंद्र पवन:
कहने को वरदान है बेटी
अनचाही संतान है बेटी
कपड़ा ,पैसा ,दान समझ कर
कर दी जाती दान है बेटी
खूब ठहाके लाता बेटा
बुझती—सी मुस्कान है बेटी
लेना—देना दो बापों का
हो जाती क़ुर्बान है बेटी
पूछ नहीं है घर में लेकिन
घर की इज़्ज़त-मान है बेटी
सास कहे है ग़ैर की जाई
माँ के घर मेहमान है बेटी.
बहुत ही मार्मिक ग़ज़ल के लिए मैं पवन जी का आभारी हूँ.
और अब मैं भाई नवनीत को उनकी ग़ज़ल के साथ आमंत्रित करता हूँ
नवनीत शर्मा :
रोज़ ही शह्र में ग़दर होना
कितना मुश्किल है यूँ बसर होना
क्या ज़रूरी था ये क़हर होना
मेरा साहिल तेरा लहर होना
हम मकाँ ग़ैर के बनाते हैं
अपना मुमकिन नहीं है घर होना
क्या ज़रूरी था ये ग़दर होना
दिल की बस्ती में उनका घर होना
किसको भाया है किसको भायेगा
तेरे क़ूचे से दर—बदर होना
ज़िन्दगी के क़रीब लाता है
तेरी बस्ती में मेरा घर होना
रास्ता मैं अगर बनूँ हमदम
तुम किनारों के सब शजर होना
यह जो नवनीत कह रहा है ग़ज़ल
सब को लाज़िम है यह ख़बर होना.
बहुत खूब, भाई नवनीत !
ये जो है हुक्म मेरे पास न आए कोई
इस लिए रूठ रहे हैं कि मनाए कोई
हो चुका ऐश का जलसा तो मुझे ख़त भेजा
आप की तरह से मेहमान बुलाए कोई
जिसने दा़ग साहेब को नहीं पढ़ा उसने कुछ नही पढ़ा.मीर के बाद सादा और साफ़ कलाम दा़ग साहेब ने पेश किया और ग़ज़ल को फ़ारसी के भारी भरकम शब्दों से ग़ज़ल को निजा़त दिलाई.
न्यू जर्सी से तशरीफ़ लाई देवी नांगरानी जी को दावते सुख़न दे रहा हूँ:
नांगरानी जी भी अपने ख़ूबसूरत कलाम के साथ मंच पर हैं. आइए:
देवी नांगरानी:
ग़ज़ल हाजि़र है:
इरशाद।
दिल से दिल तक जुड़ी हुई है ग़ज़ल
बीच में उनके पुल बनी है ग़ज़ल
छू ले पत्थर तो वो पिघल जाए
ऐसा जादू भी कर गई है ग़ज़ल
सात रंगों की है धनुष जैसी
स्वप्न -संसार रच रही है ग़ज़ल
सोच को अपनी क्या कहूँ यारो
रतजगे करके कह रही है ग़ज़ल
रूह को देती है ये सुकूं 'देवी'
ऐसी मीठी-सी रागिनी है ग़ज़ल.
**
धन्यवाद देवी जी
बेश्क ग़ज़ल एक मीठी रागिनी है.
“यह नर्म नर्म हवा झिलमिला रहे हैं चिराग़
तेरे ख़्याल की खुश्बू से बस रहे हैं दिमाग़
दिलों को तेरे तबस्सुम की याद यूं आई
की जगमगा उठें जिस तरह मंदिरों में चिराग”
फ़िराक साहेब ने गंगा-जमनी तहज़ीब की नींव रखी और उसको निभाया भी.वो हमेशा हिंदी मे लिखी जाने वाली ग़ज़ल से खफ़ा रहते थे क्योंकि हिंदी मे लिखने वाले अरुज़ को संजी़दगी से नही लेते थे लेकिन आज दुष्यंत के बाद हिंदी ग़ज़ल अपनी बाल अवस्था से निकल कर जवान होने लगी है. बाकी ये तो झगड़ा ही बेकार है.बात वही जो दिल को भाए वो उर्दू मे हो या हिंदी मे.खैर मैं अब मंच पर बुला रहा हूँ रंजन गोरखपुरी सहेब को कि वो अपना कलाम पेश करें.
रंजन जी:
बड़ा बेचैन होता जा रहा हूं,
न जाने क्यूं नहीं लिख पा रहा हूं
तुम्हे ये भी लिखूं वो भी बताऊं,
मगर अल्फ़ाज़ ढूंढे जा रहा हूं
मोहब्बत का यही आ़गाज़ होगा,
जिधर देखूं तुम्ही को पा रहा हूं
कभी सूखी ज़मीं हस्ती थी मेरी,
ज़रा देखो मैं बरसा जा रहा हूं
किसी दिन इत्तेफ़ाकन ही मिलेंगे,
पुराने ख्वाब हैं दोहरा रहा हूं
मुझे आगोश में ले लो हवाओं,
गुलों से बोतलों में जा रहा हूं
शरारत का नया अंदाज़ होगा,
मैं शायद बेवजह घबरा रहा हूं
किसे परवाह है अब मंज़िलों की,
मोहब्बत के सफ़र पर जा रहा हूं
दिलों की नाज़ुकी समझे हैं कब वो,
दिमागों को मगर समझा रहा हूं
शब-ए-फ़ुरकत की बेबस हिचकियों से,
तसल्ली है कि मैं याद आ रहा हूं
मोहब्बत थी कहां हिस्से में "रंजन",
गज़ल से यूं ही दिल बहला रहा हूं
वाह ! क्या बात है, रंजन जी.
ये सारा जिस्म झुक कर बोझ से दुहरा हुआ होगा
मैं सजदे में नहीं था आपको धोखा हुआ होगा
यहाँ तक आते—आते सूख जाती हैं कई नदियाँ
मुझे मालूम है पानी कहाँ ठहरा हुआ होगा
दुष्यन्त के इन अशआर के बाद मैं दीपक गुप्ता जी को मंच पर आमंत्रित करता हूँ:
दीपक गुप्ता :
दुनिया ने इतना भरमाया
जीवन क्या है समझ न पाया
मैंने दुःख का , दुःख ने मेरा
कैसे - कैसे साथ निभाया
हद है मुझसे मेरा तारुफ़
पूछ रहा है मेरा साया
मेरी हालत यूँ है जैसे
लौट के बुद्धू घर को आया
जाने क्यों ये आँखें बरसीं
बादल ने जब जल बरसाया .
दीपक जी, कलाम के लिए शुक्रिया।
अगर यों ही ये दिल सताता रहेगा
तो इक दिन मेरा जी ही जाता रहेगा
मैं जाता हूँ दिल को तेरे पास छोड़े
मेरी याद तुझको दिलाता रहेगा
वक्त के साथ सब कुछ बदल जाता है , कुछ साल पहले मै द्विज जी को पोस्ट कार्ड पर ग़ज़लें लिखकर भेजता था अब मेल करता हूँ । आजकल लोग गूगल मे खोजते हैं कि गज़ल कैसे लिखें और अगले दिन ग़ज़ल लिख कर ब्लाग पर लग जाती है और उस पर कुछ लोग जिन्हें ग़ज़ल की रत्ती भर भी जानकारी नहीं वो आ जाते हैं टिप्पणी करने और कुछ लोग जो हर सुबह यही करते हैं ब्लागबाणी से ब्लाग भम्रण. "बहुत अच्छा. बहुत खूब..उम्दा..क्या ग़ज़ल है !" वो हर ब्लाग पर टिप्पणी छोड़ेंगे और दूसरों को कहेंगे आप भी आइए. लोग ब्लाग की टी.आर.पी बढ़ा रहे हैं.और कई नौसिखिए अच्छी-अच्छी वेब-साइटों पर मिल जाते हैं.एक अपनी छोटी सी ग़ज़ल सांझा करना चाहता हूँ.
करे अब तबसिरा कु्छ भी कि हमने दिल की कह दी है
किसे परवाह दुनिया कि ये दुनिया कुछ भी कहती है.
मेरी ग़ज़लें नही मोहताज़ तेरे फ़ैसलों की सुन
कि इनका ठाठ है अपना रवानी इनकी अपनी है
और अब मैं अब अपने एक बहुत ही पुराने मित्र को स्टेज पर बुलाता हूँ कि वो आकर ग़ज़ल कहें. विजय धीमान:
एक जीवन क्या हताशा देखिए
मौजे-दरिया भी ज़रा सा देखिए.
नट तमाशी है यहाँ पर सच मगर
झूठ किस्से हैं तमाशा देखिए.
थाप इक बस जिंदगी के साज़ पर
क्यों नही होता खुलासा देखिए.
खुद का ही प्रतिबिंब आएगा नज़र
दीन को देकेर दिलासा देखिए.
बीज मिटटी से मिले तो पेड़ हो
और ऊँचा सर झुका सा देखिए.
वाह ! क्या बात है...
पंख कुतर कर जादूगर जब चिड़िया को तड़पाता है
सात समंदर पार का सपना सपना ही रह जाता है.
तो हाज़रीन ये शे'र कहा है “द्विज” जी ने और मैं उनसे गुजा़रिश करता हूँ कि वो अपना कलाम पेश करें और दो-शब्द कहें.
आइए सर !
द्विजेन्द्र ‘द्विज’ :
ये मेरी बहुत पुरानी ,कालेज के दिनों कि ग़ज़ल है और सतपाल की ज़िद पर मैं यही प्रस्तुत कर रहा हूँ :
पंख कुतर कर जादूगर जब चिड़िया को तड़पाता है
सात समंदर पार का सपना , सपना ही रह जाता है
‘जयद्रथ’ हो या ‘दुर्योधन’हो सबसे उसका नाता है
अब अपना गाँडीव उठाते ‘अर्जुन’ भी घबराता है
जब सन्नाटों का कोलाहल इक हद से बढ़ जाता है
तब कोई दीवाना शायर ग़ज़लें बुन कर लाता है
दावानल में नए दौर के पंछी ने यह सोच लिया
अब जलते पेड़ों की शाख़ों से अपना क्या नाता है
प्रश्न युगों से केवल यह है हँसती -गाती धरती पर
सन्नाटे के साँपों को रह-रह कर कौन बुलाता है
सब कुछ जाने ‘ब्रह्मा’ किस मुँह पीछे इन कंकालों से
इस धरती पर शिव ताँडव-सा डमरू कौन बजाता है
‘द्विज’! वो कोमल पंख हैं डरते अब इक बाज के साये से
जिन पंखों से आस का पंछी सपनों को सहलाता है।
अब मैं इस मुशायरे को आपके सामने लाने वाले सतपाल “ख्याल” को मंच पर बुलाता हूँ कि वो अपनी ग़ज़ल कहें और इस बेहतरीन मुशायरे के लिए सतपाल को बधाई देता हूँ.
बहुत ही उम्दा ग़ज़ल जो पिछले १५ सालों से दिल मे बसी है.शायरी का ये हुनर उस्ताद के बिना अधूरा है. और मै खुशनसीब हूँ कि द्विज जी जैसे गुरू मुझे मिले.द्विज जी का बहुत शुक्रिया, ये सब उनकी ही मेहनत है कि ये मुशायरा पुरा हुआ.
ग़ज़ल
चलूँ ताजा़ ख्यालों से मै इस महिफ़िल को महकाऊँ
है मौसम कोंपलों का क्यों कहानी जदॅ दुहराऊँ.
कसे हैं साज के ए दिल ! जो मैने तार हिम्मत से
मुझे तुम रोक लेना गर पुराना गीत मैं गाऊँ.
मेरे दिल को न कर तकसीम इन आंखों को हिम्मत दे
खुदा मैं फ़िर किसी गुल की मुह्व्बत मे न मर जाऊँ.
जलाकर हाथ भी अपने मुझे कुछ गम नहीं यारो
मै लेकर लौ मुहव्ब्त की अब आंगन तक तो आ जाऊँ.
ख्याल अपने ख्यालों की करो अब शम्मा तुम रौशन
उधर से वो चले आएं, इधर से मैं चला आऊं,
पग-पग पे 'तम' को हरती हों दीप-श्रृंखलाएँ
जीवन हो एक उत्सव, पूरी हों कामनाएँ
आँगन में अल्पना की चित्रावली मुबारिक
फूलों की, फुलझड़ी की, शब्दावली मुबारिक
'तम' पर विजय की सुन्दर दृश्यावली मुबारिक
दीपावली मुबारिक, दीपावली मुबारिक
-द्विजेन्द्र द्विज
मुशायरे मे आए सब शायरों का शुक्रिया और सबको दीपोत्सव की शुभकामनायें.
***********************************************************************************
Udan Tashtari said...
वाह साहब वाह, एक से एक उम्दा गजलें एवं एक से एक महारथी..आनन्द आ गया दिवाली का. बहुत जानदार और शानदार मुशायरा.
दीपावली के इस शुभ अवसर पर आप और आपके परिवार को हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाऐं.
October 28, 2008 5:10 AM
युग-विमर्श said...
इस मंच के माध्यम से निश्चित रूप से कुछ अच्छे शेर पढ़ने को मिले.
October 28, 2008 11:02 AM
रंजन गोरखपुरी said...
मुशायरे में शिरकत बेहद लाजवाब रही!
आपका और द्विज साहब का दिल से आभार!!
October 28, 2008 10:42 PM
Devmani said... दीपपर्व के शुभ अवसर पर इतने अच्छे मुशायरे के आयोजन के लिए लिए बधाई इस ख़ूबसूरत सिलसिले को आगे भी जारी रखें इसके ज़रिए पूरी दुनिया में लिखी जा रही शायरी के रंग और मिजाज़ से परिचय कराना बहुत सराहनीय कार्य है
देवमणि पाण्डेय, मुम्बई
October 29, 2008 2:53 AM
Pran Sharma said...
Mushayre ke behtreen aayojan ke
liye aapko badhaaee.Kaee naye
gazalkaron ke parichay ke saath-
saath unkee gazlen achchhee lagee.
October 30, 2008 5:17 AM
नीरज गोस्वामी said...
सतपाल जी
मुझे जिंदगी में इतनी खुशी कभी नसीब नहीं हुई...आपने मुझ जैसे एक अदना से ग़ज़लगो को इतने बड़े बड़े उस्तादों के बीच खड़ा कर जो इज्जत बक्शी है उसे ज़िन्दगी भर भुला पाना नामुमकिन है...समझ नहीं आ रहा की आप का शुक्रिया कैसे अदा करूँ...हर उस्ताद का कलाम कमाल का है, मैं इस लायक नहीं की उनपर कुछ कह सकूँ...एक बार फ़िर तहे दिल से शुक्रिया.
नीरज
October 31, 2008 7:19 AM
महावीर said...
कुछ दिनों से निजी कारणों से नेट से दूर रहना पड़ा। आज की ग़ज़ल पर मुशायरा देख कर आनंद आगया। एक बहुत ही सुंदर और सफल आयोजन के लिए ढेर सारी बधाईयां स्वीकारें। मैं आपका शुक्रगुज़ार हूं कि प्रतिष्ठावान शायरों के साथ मेरी रचना सम्मलित की गई जो मेरे लिए बहुत सम्मान की बात है। एक बार फिर आयोजकों का आभार व्यक्त करता हूं।
महावीर शर्मा
महावीर शर्मा
October 31, 2008 11:14 AM
सतपाल said...
Here is ghazal by Ahmad ali :
मुशायरा – आज की ग़ज़ल.ब्लागस्पाट.काम
डा. अहमद अली बर्क़ी आज़मी
है तर्जुमाने अहदे रवाँ आज की ग़ज़ल
है बेनेयाज़े सूदो ज़ेयाँ आज की ग़ज़ल
है यह ब्लाग और ब्लागोँ से मुख़तलिफ
सत्पाल का है अज़मे जवाँ आज की ग़ज़ल
बरपा किया है उसने यहाँ जो मुशायरा
उस से अयाँ है अब है कहाँ आज की ग़ज़ल
महफ़िल मेँ उसकी जो भी हैँ शायर ग़ज़ल सरा
अज़मत का उनकी है यह निशाँ आज की ग़ज़ल
सरवर,प्राण शर्मा, महावीर और द्विज
सबका अलग है तर्ज़े बयाँ आज की ग़ज़ल
नीरज,पवन, ज़हीर क़ुरैशी, अमित, धिमान
है सबके फिकरो फन का निशाँ आज की ग़ज़ल
हैँ चाँद शुक्ला,देवमणि और तूर भी
बज़मे सुख़न की रूहे रवाँ आज की ग़ज़ल
अहमद अली भी साथ है सबके ग़ज़ल सरा
है फिकरो फन की जुए रवाँ आज की ग़ज़ल
October 31, 2008 9:23 PM
Dr. Sudha Om Dhingra said...
मुशायरे का आन्नद आ गया. इस मंच से इतनी उम्दा ग़ज़लें मिलीं---भारत के मुशायरों की याद आ गई. ऐसे मुशायरे करते रहिये.
उत्तम शायरी हम तक पहुँचती रहे--यही कामना है...धन्यवाद!
सुधा ओम ढींगरा
November 3, 2008 3:35 PM
गौतम राजरिशी said...
क्या बात है सतपाल जी...इस शानदार प्रस्तुती के लिये...सारे के सारे नगीने एक साथ.ये तो अभी कई-कई दिन तक पढते रहना पड़ेगा.एक साथ महीनों की खुराक....शुक्रिया आपका
---और पिछले पोस्ट में जब आपने मुशायरे की घोषणा की थी मैं अपनी नादानी में गुस्ताखी कर पूछ बैठा था खुद के शिरकत करने को.हाः--इन दिग्गजों के समकक्ष तो मैं मंच के करिब आने के भी काबिल नहीं...
इनमें से कुछ गज़ल अगर मैं अपने मेल पर मंगाना चाहूं,तो कोई उपाय है क्या?
November 5, 2008 7:45 PM
Devi Nangrani said...
satpal ji
mubarak ho aapko is safal prayaas ke liye. Desh videsh ke beech ka setu bani hai shayari.
गजलः ९१
लगती है मन को अच्छी, शाइर गज़ल तुम्हारी
आवाज़ है ये दिल की, शाइर गज़ल तुम्हारी.
ये नैन-होंट चुप है, फिर भी सुनी है हमने
उन्वां थी गुफ्तगू की, शाइर गज़ल तुम्हारी.
ये रात का अँधेरा, तन्हाइयों का आलम
ऐसे में सिर्फ साथी, शाइर गज़ल तुम्हारी.
नाचे हैं राधा मोहन, नाचे है सारा गोकुल
मोहक ये कितनी लगती, शाइर गज़ल तुम्हारी.
है ताल दादरा ये, और राग भैरवी है
सँगीत ने सजाई, शाइर गज़ल तुम्हारी.
मन की ये भावनायें, शब्दों में हैं पिरोई
है ये बड़ी रसीली, शाइर गज़ल तुम्हारी.
अहसास की रवानी, हर एक लफ्ज़ में है
है शान शाइरी की, शाइर गज़ल तुम्हारी.
अनजान कोई रिश्ता, दिल में पनप रहा है
धड़कन ये है उसीकी, शाइर गज़ल तुम्हारी.
दो अक्षरों का पाया जो ग्यान तुमने ‘देवी’
उससे निखर के आई, शायर गजल तुम्हारी.
DEvi nangrani
November 9, 2008 10:50 PM
Sunday, October 26, 2008
Wednesday, October 22, 2008
मुशायरा
Saturday, October 11, 2008
श्री ब्रज किशोर वर्मा 'शैदी' की ग़ज़लें और परिचय
परिचय:
3 जून 1941 को अलीगढ़ (उ०प्र०) में जन्में श्री ब्रज किशोर वर्मा 'शैदी' सूचना विज्ञान में एम.एस. सी, व एम.फ़िल हैं और आप दिल्ली-विश्व विद्यालय के पटेल चैस्ट इंस्टीट्यूट से सेवा निवृत हुए हैं। आपने युगोस्लाव छात्रवृत्ति पर युगोस्लाव भाषा का विशेष अध्ययन किया है और इस भाषा की काव्य रचनाओं का हिंदी में अनुवाद भी किया हैं युगोस्लाव भाषाओं में भारतीय विषयों से संबंधित रचनाओं आदि पर शोध कार्य भी किया है। अमेरिका व यूरोपीय देशों में साहित्यिक, वैज्ञानिक गोष्ठियों व गतिविधियों से संबंधित भ्रमण भी किये।युगोस्लाव दूरदर्शन पर भारत-संबंधित वार्ताएँ, आकाशवाणी पर साक्षात्कार व नियमित काव्य पाठ । आप मुख्य-रूप से उर्दू,खड़ी बोली, ब्रजभाषा व अँग्रेज़ी में काव्य रचते हैं, और काव्य के अच्छे समीक्ष्क भी हैं।
मयख़ाना,दर की ठोकरें, तिराहे पर खड़ा दरख़्त (काव्य संग्रह), तुकी-बेतुकी, तू-तू मैं-मैं (हास्य-व्यंग्य काव्य संग्रह) चूहे की शादी (बाल-गीत संग्रह),हम जंगल के फूल(दोहा सतसई) इत्यादि इनकी प्रकाशित कृतियाँ हैं और इसके अतिरिक्त आप कई दोहा और ग़ज़ल संकलनों में सहयोगी रचनाकार के रूप में संकलित हो चुके हैं।
प्रस्तुत हैं श्री ब्रज किशोर वर्मा 'शैदी' चार ग़ज़लें :
एक.
यारब ये क्या सुलूक किया दिलबरों के साथ
दानिशवरों को छोड़ दिया,सिरफिरों के साथ
संजीदगी की उनसे तवक़्क़ो न कीजिये
जिनकी तमाम उम्र कटी मसख़रों के साथ
तामीर नया घर तो करें शौक़ से, मगर
रिश्ते न तोड़िएगा पुराने घरों के साथ
पत्थर है बासलीक़ा तो हाज़िर है आईना
बस,शर्त ये है, फ़न भी हो शीशागरों के साथ
ऐवाने—शहनशाह ये खँडहर रहे कभी
तारीख़ हमनवा है, इन्हीं पत्थरों के साथ
हुस्ने-अयाँ के सामने हुस्ने—निहाँ फ़िज़ूल
मुश्किल यही है आज के दीदावरों के साथ
ज़ीनत हैं दिल की ज़ख़्म जो बख़्शे हैं आपने
जैसे नई दुल्हन हो कोई ज़ेवरों के साथ
मंज़िल पे ले के जायें जो नफ़रत की राह से
मुझको सफ़र क़ुबूल न उन रहबरों के साथ
'शैदी'! उन्हीं को कर गया बौना कुछ और भी
बौनों का जो सुलूक था,क़द्दावरों के साथ.
बहरे मुज़ारे : 221,2121,1221,2121
दो
अब्र नफ़रत का बरसता है, ख़ुदा ख़ैर करे
हर तरफ़ क़हर-सा बरपा है, ख़ुदा ख़ैर करे
चुन भी पाए न थे अब तक, शिकस्ता आईने,
संग फिर उसने उठाया है, ख़ुदा ख़ैर करे
जो गया था अभी इस सिम्त से लिए ख़ंजर
जाने क्या सोच के पलटा है, ख़ुदा ख़ैर करे
क़ातिले—शहर के हमराह हज़ारों लश्कर
हाकिमे-शहर अकेला है, ख़ुदा ख़ैर करे
लोग इस गाँव के उस गाँव से मिलें कैसे ?
दरमियाँ ख़ून का दरिया है, ख़ुदा ख़ैर करे
किसलिये नींद में अब डरने लगे हैं बच्चे?
ख़्वाब आँखों में ये कैसा है, ख़ुदा ख़ैर करे
उम्रभर आग बुझाता रहा जो बस्ती में
घर उसी शख़्स का जलता है, ख़ुदा ख़ैर करे
जाने उस शख़्स ने देखे हैं हादसे कैसे
आह भर कर वो ये कहता है 'ख़ुदा ख़ैर करे'
कितना पुरशोर था , माहौल शहर का, 'शैदी'
नागहाँ किसलिये चुप-सा है, ख़ुदा ख़ैर करे.
बहर—ए— रमल का एक ज़िहाफ़=2122,1122,1122,112
तीन.
खिलते फूल सलोने देख !
रंगो-बू के दोने देख !
ये पुरख़ार बिछौने देख !
आया हूँ मैं सोने देख
दुख, तन्हाई ,यादें ,जाम
मेरे खेल-खिलौने देख !
जागेगा तो रोयेगा
मत तू ख़्वाब सलोने देख !
वो तो पानी जैसा है
पहुँचा कोने-कोने देख !
हीरे का दिल टूट गया
दाम वो औने-पौने देख !
सब पाने की धुन में हैं
हम आये हैं खोने, देख !
वो तेरे ही अंदर है
मन के सारे कोने देख
लगता वो मासूम मगर
उसके जादू- टोने देख !
22, 22, 22 2(I)
चार.
कैसे ख़ूनी मंज़र हैं
फूलों पर भी ख़ंजर हैं
नाज़ुक़ शीशा तोड़ दिया
पत्थर, कितने पत्थर हैं
बढ़े हौसले बाज़ों के
सहमे हुए कबूतर हैं
बस्ती के सारे दुश्मन
बस्ती के ही अंदर हैं
सारी बस्ती पहन सके
इतने उसके तन पर हैं
दीवाने का सर है एक
दुनिया भर के पत्थर हैं
प्यास किसी की बुझा सके?
माना, आप समंदर हैं
जो ईंटें हैं मंदिर में
वही हरम के अंदर हैं
जिनमें मोती बनने थे
वे ही कोखें बंजर हैं .
22, 22, 22 2
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