Saturday, February 27, 2010

होली मुबारक

















उधर से रंग लिए आओ तुम, इधर से हम
गुलाल अबीर मलें मुँह पे होके खुश हर दम
खुशी से बोलें, हँसे , होली खेल कर बाहम

बहुत दिनों से हमें तो तुम्हारे सर की क़सम
इसी उम्मीद में था इन्तज़ार होली का...
नज़ीर अकबराबादी

"आज की ग़ज़ल" की तरफ़ से आप सब को होली मुबारक हो। चंद अशआर आप लोगों की नज़्र हैं-

धर्म क्‍या औ’ जात क्‍या, रूप क्‍या औकात क्‍या
रंग होली का हो बस, इससे बड़ी सौगात क्‍या... तिलक राज कपूर

ला के बाज़ार से रगीन गुलाल इतराएँ
हाथ रुख्सारों पे फिसला के मना लें होली...प्रेमचंद सहजवाला

खेलिए होली ब्लागा’इस्पाट पर
रंग में पड़ने न पाए कोई भंग...अहमद अली बर्की

खुशबू को मु्ट्ठियों में क़ैद करके क्या मिलेगा
है मज़ा जब खुशबुओं में क़ैद होकर तुम दिखाओ...दीपक गुप्ता

दुश्मन भी अपना हो जाए,रंगों में ऐसी ताकत है
आज सभी उन रंगों की हमको यार ज़रुरत है..विलास पंडित"मुसाफ़िर"


रंगों की बौछार तो लाल गुलाल के टीके
बिन अपनों के लेकिन सारे रंग ही फीके...चाँद शुक्ला

तन भिगोया मन भिगोया आत्मा भीगी
प्यार ही पिचकारियों का नाम हो जैसे...चन्द्रभान भारद्वाज

ऐसी चली पुरवाई होली में प्यारे
गूँज उठी शहनाई होली में प्यारे

भाग्य खिला फागुन का खूब मज़े लेकर
मस्ती क्या लहराई होली में प्यारे

गले मिले सब भाई -भाई ही बनकर
धन्य हुई हर माई होली में प्यारे

रंग सभी ए "प्राण" लगें सुन्दर-सुन्दर
पाट दिलों की खाई होली में प्यारे ...प्राण शर्मा

मेरा एक शे’र भी आपकी नज़्र है-

आप दीवारों पे अब छिड़को गुलाल
वो तो ग़ैर अब हो चुका है देखिए...सतपाल ख़याल


अब न तो वो संगी-साथी रहे , न ही बचपन की वो गलियां , वो घर, वो शहर, सब कुछ बदल गया है । पड़ोस में रहने वाले मुझे नहीं जानते और न ही मैं उन्हें। अजीब सा माहौल है आजकल,ऐसे में सुरजीत पात्र का लिखा और हंस राज हंस का गाया..

दूर इक पिंड विच निक्का जिहा घर सी
कच्चियां सी कंधा ओहदा दोहरा जिहा दर सी...

सुनिए ये आपको आपके गांव की गलियों तक ले जाएगा।




Saturday, February 20, 2010

दिनेश ठाकुर की ग़ज़लें











1963 में उदयपुर में जन्में दिनेश ठाकुर आजकल राजस्थान पत्रिका में वरिष्ट सामाचार संपादक हैं। एक ग़ज़ल संग्रह" हम लोग भले हैं कागज़ पर" छाया हो चुका है। फ़िल्म समीक्षक भी रह चुके हैं और पत्र-पत्रिकाओं में छपते रहते हैं। हाल ही में अनुभूति पर इनकी ग़ज़लें शाया हुईं और इनके कुछ शे’रों ने मुझे बहुत प्रभावित किया, सो मेल करके इनसे ग़ज़लें मंगवाईं जो आज आपकी नज़्र करूँगा। पहले इनके कुछ अशआर मुलाहि्ज़ा कीजिए-

गज़ल

जहाँ लफ्ज़ डमरू के किरदार में हैं
सुखन मेरा उस शायरी से अलग है

तेरी याद के जुगनुओं की क़सम
ये बारिश के छींटे शरारे हुए

दुःख की तितली के पंखों पर
बाँधो सुख का धागा लम्बा

ये शे’र अपने आप में एक ताज़गी और नयापन ज़ाहिर कर रहे हैं और ग़ज़ल के लहजे को भी बर्करार रखे हुए है। यही एक सफल शायर की निशानी है कि वो किस तरह ग़ज़ल की नज़ाकत का भी ख़याल रखता है और नए प्रयोग भी कर लेता है। इस नए लहजे के बारे में बशीर बद्र साहब का ये शे’र क़ाबिले-ग़ौर है-

कोई फूल धूप की पत्तियों मे हरे रिबन से बंधा हुआ
वो ग़ज़ल का लहजा नया-नया , न कहा हुआ न सुना हुआ

ग़ज़ल तक़रीबन 800 साल पहले अपने काँधे पर सुराही लेकर हिंदुस्तान में दाख़िल हुई। तब से खुसरो से लेकर मुनव्वर राना तक हर शायर ने इसे अपने रंग में रंगना चाहा। किसी ने इसके हाथ में मशाल थमा दी, किसी ने इसके दुपट्टे को तसव्वुफ़ के रंग में रंग दिया,किसी ने इसे कोठे पे बिठा दिया, कोई मैखाने तक ले गया, किसी ने इसे हिज़्र-मिलन के पाठ पढ़ाए और आज तो ग़ज़ल के मायने ही बदल रहे हैं। ग़ज़ल अब संसद मे नज़र आती है, सड़कों पर नज़र आती है। मुनव्वर राना जैसे शायरों ने इसे माँ के रूप में देखा, बेटी भी कहा और लोगों ने इसे सराहा और क़बूल किया। दुश्यंत ने अपने अंदाज़ में इसे लिया, लेकिन वही शायर सफ़ल हुए जिन्होंने प्रयोग तो किए लेकिन ग़ज़ल के असली रंग-रूप, उसकी नज़ाकत, उसकी कोमलता और उसके ख़ास लहजे को ठेस नहीं पहुँचाई और वो शायर जिन्होंने इसकी आत्मा बदलनी चाही वो सफ़ल नहीं हुए। उदाहरण के तौर पर पानी भले बर्फ़ बन जाए, हवा बन जाए, नदी हो जाए या बादल बनकर बरसे लेकिन रहता पानी ही है, essence of water is not changed ,उसी तरह ग़ज़ल की ये essence ये रूह नहीं बदलनी चाहिए और वो होनी भी नई चाहिए। जिसे लोग पढ़कर ही कहें कि ये फ़लां शायर की है।

मेरी ग़ज़ल को मेरी ग़ज़ल होना चाहिए
तालाब में मिस्ले-कंवल होना चाहिए
..मुनव्वर राना

ग़ज़ल में ये नयापन लाना बहुत कठिन है। इस बात को मुनव्वर साहब के ये शे’र देखें कैसे बयान करता है-

बहुत दुश्वार है प्यारे ग़ज़ल में नादिराकारी
ज़रा सी भूल अच्छे शे’र को *मोहमल बनाती है


* (निरर्थक) *नादिराकारी- art of perfection

अब दिनेश ठाकुर की ये ग़ज़ल बहरे-खफ़ीफ़ की मुज़ाहिफ़ शक्ल में

हम यूँ महदूद हो लिये घर में
हँस लिये घर में, रो लिये घर में

जाने किस फूल की तमन्ना थी
ख़ार ही ख़ार बो लिये घर में

जिससे हासिल सबक़ करें बच्चे
इस सलीक़े से बोलिए घर में

वो समझते हैं दिन अमन के हैं
एक मुद्दत जो सो लिये घर में

चारागर पूछता सबब जिनके
हमने वो ज़ख़्म धो लिये घर में

*महदूद-सीमित

मैं तो समझता हूँ कि हम ग़ज़ल की नींव नहीं बदल सकते लेकिन ऊपर मकान अपने ढंग से बना सकते हैं। नींव जितनी अच्छी होगी मकान मज़बूत होगा जैसे लता मंगेशकर गाए भले पाप लेकिन उनका क्लासिकल बेस उस पाप को बेमिसाल बना देता है ऐसा ही शायर के साथ भी है। बिना क्लासिकल पढ़े-सुने कोई शायर थोड़े बन सकता है। गा़लिबो-मीर को जाने समझे बिना शायर होना बेसुरा गायक होने जैसा है। मैनें जब द्विज जी को अपने ये शे’र सुनाए-

नाती-पोतों ने ज़िद्द की तो
अम्मा का संदूक खुला है

घर में हाल बजुर्गों का अब
पीतल के वर्तन जैसा है

तो उन्होंने कहा अब तुम निकले अपने खोल के बाहर । इसी नयेपन की ज़रूरत है लेकिन..essence of ghazal should not change ये एक शर्त है। बशीर साहब ने भी चेताया है-

शबनमी लहजा है आहिस्ता ग़ज़ल पढ़ना
तितली की कहानी है फूलों की ज़बानी है

शायरी में दोहराव भी बहुत है जिसकी वज़ह से कई बार ऊब भी पैदा होती है । बहुत कुछ कहा जा चुका है और उसी बहुत कुछ कहे हुए को फिर से कहना है । शायद इसीलिए नए लहजे की ज़रूरत ज़्यादा है। एक ही बात को ज़रा से फ़ेर कह देने का चलन बहुत है -

न जाने कौन सी मज़बूरियों का क़ैदी हो,
वो साथ छोड़ गया है तो बेवफ़ा न कहो..राहत इंदौरी

कुछ तो मजबूरियाँ रही होंगी
यूँ कोई बेवफ़ा नहीं होता..बशीर बद्र

जिन्हें तुम ने समझा मेरी बेवफ़ाई
मेरी ज़िन्दगी की वो मज़बूरियां थीं..आनंद बख़्शी

(ये बहुत बड़े शायर है और शायरी का मान हैं ये शे’र खाली हम जैसे नए शायरों के समझने के लिए हैं)

दिनेश ठाकुर की एक और ग़ज़ल बहरे-खफ़ीफ़ की मुज़ाहिफ़ शक्ल में

यूँ जो वादों से पेट भर जाते
हम तो बदहजमियों से मर जाते.

सबने चेहरे बदल लिये वरना
आदमी आदमी से डर जाते.

काम-धंधे से लग गए ज़ाहिद
हम न होते तो ये किधर जाते.

ख़ुशख़रामी भी रास आ जाती
आप सच बोलकर मुकर जाते.

सबके सब हम पे धर दिए क्योंकर
कुछ तो इल्ज़ाम उसके सर जाते.

हमसुबू कब गए पता ही नहीं
तू उठाता तो हम भी घर जाते

*ख़ुशख़रामी-खूबसूरत चाल *हमसुबू- एक सुराही से पीने वाले

शायरी में दोहराव से तंग आकर द्विज जी का ये शे’र देखें क्या कहता है-

झूमती, लड़खड़ाती ग़ज़ल मत कहो
अब कहो ठोकरों से सं‘भलती ग़ज़ल


ये देखिए ताज़गी और नयेपन का नमूना बशीर बद्र साहब का शे’र-

ज़हन में तितलियां उड़ रहीं थी बहुत
कोई धागा नहीं बाँधने के लिए

यक़ीनन ख़यालात तो सबके एक जैसे ही हैं और हमारे एहसास भी एक जैसे, द्विज जी ने एक दिन बताया कि..

what you said is not important but how beautifully we said it, how beautifully we express it, how diffrently we explain it, is something which is very important in poetry.

वो ग़ज़ल पढ़ने में लगता भी ग़ज़ल जैसा था
सिर्फ़ ग़ज़लें ही नहीं लहजा भी ग़ज़ल जैसा था..
मुनव्वर राना

दिनेश ठाकुर की एक और ग़ज़ल( ७ फ़ेलुन+ १ फ़े)

पनघट, दरिया कैसे हैं, वो खेत, वो दाने कैसे हैं
रब जाने अब गाँव में मेरे यार पुराने कैसे हैं

जिसको छूकर सब हमजोली झूठी क़समें खाते थे
अब वो पीपल कैसा है, वो लोग स्याने कैसे हैं

छिप-छिपकर तकते थे जिसको अब वो दुल्हन कैसी है
सास, ससुर, भौजी, नंदों के मीठे ताने कैसे हैं

पहली-पहली बारिश में हर आँगन महका करता था
छज्जों का टप-टप करना, वो दौर सुहाने कैसे हैं

रोज़ सुबह इक परदेसी का संदेशा ले आती थी
उस कोयल की चोंच मढ़ाने के अफ़साने कैसे हैं

दिन भर जलकर और जलाकर सूरज का वो ढल जाना
शाम की ठंडी तासींरे, चौपाल के गाने कैसे हैं

परबत वाले मंदिर पे क्या अब भी मेला भरता है
घर से बाहर फिरने के सद शोख़ बहाने कैसे है

यक़ीनन जिस नयेपन और ताज़गी की हम बात करते हैं दिनेश ठाकुर की ये ग़ज़लें उसका प्रमाण हैं। मुनव्वर साहब के इस शे’र के साथ इस चर्चा को विराम देते हैं-

बेसदा ग़ज़लें न लिख वीरान राहों की तरह
खामुशी अच्छी नहीं आहों कराहों की तरह

Sunday, February 14, 2010

अंसार क़ंबरी-ग़ज़ल और परिचय











1950 में कानपुर में जन्में अंसार क़ंबरी देश के माने हुए शायर हैं और अपने दोहों के लिए भी चर्चित हैं। एक ग़ज़ल संग्रह "सलीबों के क़रीब" भी छाया हो चुका है और उनके दोहों की किताब भी छाया हो चुकी है। बात चल रही थी हिंदी मीटर की तो सोचा क्यों न इसी मीटर की ग़ज़ल पेश की जाए तो लीजिए पहले अंसारी साहब की इसी मीटर में कही ग़ज़ल मुलाहिज़ा कीजिए-

ग़ज़ल

धूप का जंगल, नंगे पाँव इक बंजारा करता क्या
रेत का दरिया, रेत के झरने प्यास का मारा करता क्या

बादल-बादल आग लगी थी छाया तरसे छाया को
पत्ता-पत्ता सूख चुका था पेड़ बेचारा करता क्या

सब उसके आंगन में अपनी राम कहानी कहते थे
बोल नहीं सकता था कुछ भी घर-चौबारा करता क्या

तुमने चाहे चाँद-सितारे हमको मोती लाने थे
हम दोनों की राह अलग थी साथ तुम्हारा करता क्या

ये है तेरी और न मेरी दुनिया आनी-जानी है
तेरा-मेरा, इसका-उसका फिर बँटवारा करता क्या

टूट गए जो बंधन सारे और किनारे छूट गए
बीच भँवर में मैनें उसका नाम पुकारा करता क्या

अब इस ग़ज़ल के बाद मैं श्री चंद्रभान भारद्वाज जी की टिप्पणी का उल्लेख ज़रूरी समझता हूँ-

"सतपाल जी,यदि गज़ल बहर में नही है पर मात्रिक छंद के अनुसार है, तो सही है इससे सहमत नही हुआ जा सकता। असल में हिन्दी काव्य में गज़ल विधा ही नही है। अतः जिस भाषा के काव्य से गज़ल आई है उसे यदि हिन्दी में अपनाना है तो उसके नियमों का पालन करना नितान्त आवश्यक है चूंकि गज़ल में बहर की मुख्य भूमिका होती है अतः उसे बहर में रखना आवश्यक है। अपनॆ जिस शेर का उदाहरण दिया है उससे भी स्पष्ट है कि ज़रा से हेरफेर से लय अवरुद्ध हो जाती है।"

अब इन्होंने बात पते की कही और सही भी। मैं भी इसी पक्ष में हूँ और बहर का ही पालन करता हूँ और ऐसा करने का ही मशविरा देता हूँ लेकिन जब आर.पी शर्मा जी जैसे विद्वान इसे सही कहते हैं तो हम अपनी राय को झोले में डाल लेते हैं । चंद्रभान भारद्वाज जी की इस टिप्प्णी को हम इस बहस का हासिल मान सकते हैं और बाक़ई ये भाषाई झगड़े कभी ख़त्म होने वाले नहीं और इसे अंसारी साहब के इस शे’र के साथ विराम देते हैं-

जो हम लड़ते रहे भाषा को लेकर
कोई ग़ालिब न तुलसीदास होगा

और मीर साहब की इसी हिंदी मीटर में कही ग़ज़ल
पत्ता-पत्ता, बूटा-बूटा हाल हमार जाने है..को मेंहदी हसन जी की आवाज़ में सुनते हैं-

Monday, February 8, 2010

मात्रिक छंद और बहर

चलिए आज बात करते हैं क़तील शिफ़ाई साहब की। इनका वास्तविक नाम औरंगज़ेब खान था और क़तील इनका तखल्लुस और शिफ़ाई इनके उस्ताद शिफ़ा से प्रेरित है। इस नाम से हर कोई वाकि़फ़ है और क़तील साहब ने हिंदी मीटर में काफ़ी ग़ज़लें कही। जैसा कि हमने पिछली पोस्ट में भी ज़िक्र किया ,ये बड़ा पेचीदा विषय है लेकिन दिलचस्प भी। उर्दू बहरों के अनुरूप हिंदी के कई छंद हैं ।बात शुरू करते हैं बहरे-मुतका़रिब की मुज़ाहिफ़(modofied) शक़्ल से- मुज़ाहिफ़ शक़्लों के अपने-अपने नाम हैं जो याद रखने मुशकिल हैं। उससे कुछ ज़्याद फ़र्क़ नहीं पड़ता। ये मुज़ाहिफ़ शक़्ल बहरे-मुतदारिक में भी रिपीट होती है। ये मुज़ाहिफ़ शक़्ल है-

बहरे-मुतकारिब की मुज़ाहिफ़ शक़्ल-
15 फ़ेलुऩ
22 22 22 22 22 22 22 2

इसका एक उदाहरण-

तुम पूछो और मैं न बताऊँ ऐसे तो हालात नहीं
एक ज़रा सा दिल टूटा है और तो कोई बात नहीं

अब किस एक गुरू(फ़ेलुन) के स्थान पर दो लघु(फ़’इ’लुन) आने हैं इसके भी नियम हैं जिनका सख़्ताई से पालन नहीं होता । अमूमन पहले और अंतिम गुरू(फ़ेलुन) को छोड़कर बीच का कोई गुरू दो लघुओं से रिपलेस कर लिया जाता है जैसे कि इस उदाहरण मे-
तुम पूछो और मैं न बताऊँ ऐसे तो हालात नहीं
S SS S S । ।S SS SS S S। । S
एक ज़रा सा दिल टूटा है और तो कोई बात नहीं
S | | S S S S S S S| | S S S| | S

पहले मिसरे में छटे स्थान पर १४ वें स्थान पर, दूसरे में दूसरे, दसवें और १४ वें स्थान का गुरू दो लघुओं से रिपलेस हुआ। ( हिंदी मे स्थानों की गिनती और होगी)सो ये दूसरी ग़ज़लों में कुछ और हो सकता है । अमूमन पहले और अंतिम स्थान पर गुरू का प्रयोग होता है। अब बात करते हैं मात्रिक छंद की -

तुम पूछो और मैं न बताऊँ ऐसे तो हालात नहीं
S SS S S । ।S SS SS S S। । S = 30 मात्राएँ

एक ज़रा सा दिल टूटा है और तो कोई बात नहीं
S | | S S S S S S S| | S S S| | S = 30 मात्राएँ

कुछ शायर बहर(फ़ेलुन) की इस तरकीब को नहीं निभाते बस मात्रा गिनकर ग़ज़ल का हिंदीकरण कर देते हैं और इसे मात्रिक छंद बता देते हैं। मैनें इसी विषय पर आर.पी शर्मा जी से भी बात की । मैनें उनसे ये पूछा कि छंद या बहर लय के लिए ही बने हैं । आपको इन दो प्रकारों में "मात्रिक और बहर अनुरूप" किस रूप में लगता है कि लय बेहतर है तो उन्होंने कहा कि बहर में तो लय शत-प्रतिशत सुनिश्चित ही है लेकिन अगर ग़ज़ल मात्रिक है तो भी सही है मुझे मेरा जवाब मिल गया और आइए अब एक काम करते हैं-

एक ज़रा सा दिल टूटा है और तो कोई बात नहीं

इस मिसरे में थोड़ा सा हेर-फ़ेर करते हैं फ़िर देखते हैं कि लय पर क्या असर पड़ता है-

इस मिसरे को यूँ कर देते हैं-

ज़रा एक ये दिल टूटा है और तो कोई बात नहीं

अब पूरा शे’र इसी रूप में-

तुम पूछो और मैं न बताऊँ ऐसे तो हालात नहीं
ज़रा एक ये दिल टूटा है और तो कोई बात नहीं

और अब इसे पढ़िए-

तुम पूछो और मैं न बताऊँ ऐसे तो हालात नहीं
एक ज़रा सा दिल टूटा है और तो कोई बात नहीं


फ़र्क़ आपके सामने है। मात्राएँ दोनों तरह ३० ही हैं लेकिन लय बिगड़ गई। क्योंकि बहर के अनुरूप पहला शे’र नहीं है। क़तील साहब ने इस मीटर में कई ग़ज़लें कहीं और इसे अमूमन हिंदी मीटर या मीर का मीटर भी कह लेते हैं। इस मीटर में जो लय है वो दूसरी बहरों में नहीं, बहुत आनंद आता है इस मीटर में लिखी ग़ज़लों को पढ़कर । जब मात्रिक छंदों के लिहाज़ से बात करते हैं तो मुफ़ाईलुन(1222)और फ़ाइलातुन (2122) में कोई फ़र्क नहीं मिलता दोनों की मात्राओं की गिनती एक जैसी है और बहर के लिहाज़ से ज़मीन आसमान का फ़र्क़ पड़ जाता है। अगर हम छंद के हिसाब से भी लिखें तो उस छंद के कायदे-क़ानून का तो पालन करें और कम से कम मात्रिक छंदों में मात्रा तो न गिराएँ। अगर मात्रिक छंद मे मात्रा को ही गिरा दिया तो फिर क्या फ़ायदा। जिस छंद में लिख रहे हैं उसका पालन तो कर लें।

उदाहरण के लिए-

बहरे-मुतकारिब

फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन

हिंदी में में इससे मिलता-जुलता भुजंगपयात के वर्ण वृत प्रति चरण चार रगण(।SS) और मात्रिक के हिसाब से प्रति चरण बीस मात्राएँ और मात्रिक रूप में भी ये शर्त है कि पहली, छठी,ग्यारवीं और सोलवीं मात्रा लघु हो। अब कम से कम इस शर्त को तो हम मान लें और अगर हम वर्ण व्रुतों में लिखें फिर तो झगड़ा ही ख़त्म हो जाता है। आखिर ये बहर-विज्ञान भी तो संस्कृत से ही निकला है। थोड़ी सी मेहनत तो लाज़िमी है ही। सारी बहरें हर शायर के अवचेतन मन में होती हैं ,जब थोड़ा ज्ञान हो जाता है तो पता चल जाता है कि ये मिसरा जो मैं गुनगुना रहा था ये तो फ़लां बहर में है।
और द्विज जी ने एक बार समझाया था कि बहर तो खाल या साँचे की की तरह होती है और शब्द उसमें ठूसा जाने वाला भूसा मात्र है, शब्द टूट सकते हैं( कबीरा , कबिरा हो सकता है) लेकिन लय/बहर नहीं। बहर सही में आत्मा है और शब्द शरीर।इस लिंक को ज़रूर पढ़े बहुत महत्वपूर्ण लिंक है-
http://www.abhivyakti-hindi.org/rachanaprasang/2005/ghazal/ghazal10.htm

ये मेरा निजी विचार है कि अगर हम बहरों को ज्यूँ का त्यूँ स्वीकार कर लें और उर्दू के तय नियमों को मानकर देवनागरी में लिखें तो ज़्यादा अच्छा है जो कई शायर कर भी रहे हैं और जिस भाषा का दामन जितना बड़ा होता है वो उतनी अमीर होती है। ये बहर-विज्ञान स्वीकार कर लेने में किसी के अहम को ठेस नहीं पहुँचनी चाहिए। एक भाषा दूसरी भाषा से सीखती है और अमीर होती है। और मैं तो ये मानता हूँ कि हिंदी और उर्दू भारत की भाषाएँ हैं और रहेंगी।

लिपट जाता हूँ माँ से और मौसी मुस्कुराती है
मैं उर्दू में ग़ज़ल कहता हूँ हिन्दी मुस्कुराती है

यही हमारी तहजीब है जो आज भी हम सब को बांधे हुए है।

हाँ बात तो क़तील साहब से शुरू हुई थी । क़तील साहब का जन्म पाकिस्तान में १९१९ में हुआ और उनके गीत ग़ज़ल बड़े-बड़े गायकों ने गाए और फ़िल्मों में भी उन्होंने कई गीत लिखे। जगजीत- चित्रा नें भी कई ग़ज़लें गाईं। २००१ में वो चल बसे । उन्होंने हिंदी मीटर में कई गज़लें कहीं। उनमें से दो ग़ज़लें मुलाहिज़ा कीजिए-

एक

मैनें पूछा पहला पत्थर मुझ पर कौन उठायेगा
आई इक आवाज़ कि तू जिसका मोहसिन कहलायेगा

पूछ सके तो पूछे कोई रूठ के जाने वालों से
रोशनियों को मेरे घर का रस्ता कौन बतायेगा

लोगो मेरे साथ चलो तुम जो कुछ है वो आगे है
पीछे मुड़ कर देखने वाला पत्थर का हो जायेगा

दिन में हँसकर मिलने वाले चेहरे साफ़ बताते हैं
एक भयानक सपना मुझको सारी रात डरायेगा

मेरे बाद वफ़ा का धोखा और किसी से मत करना
गाली देगी दुनिया तुझको सर मेरा झुक जायेगा

सूख गई जब इन आँखों में प्यार की नीली झील "क़तील"
तेरे दर्द का ज़र्द समन्दर काहे शोर मचायेगा

दो

हिज्र की पहली शाम के साये दूर उफ़क़ तक छाये थे
हम जब उसके शहर से निकले सब रस्ते सँवलाये थे

जाने वो क्या सोच रहा था अपने दिल में सारी रात
प्यार की बातें करते करते नैन उस के भर आये थे

उसने कितने प्यार से अपना कुफ़्र दिया नज़राने में
हम अपने ईमान का सौदा जिससे करने आये थे

कैसे जाती मेरे बदन से बीते लम्हों की ख़ुश्बू
ख़्वाबों की उस बस्ती में कुछ फूल मेरे हम-साये थे

कैसा प्यारा मंज़र था जब देख के अपने साथी को
पेड़ पे बैठी इक चिड़िया ने अपने पर फैलाये थे

रुख़्सत के दिन भीगी आँखों उसका कहना हाए "क़तील"
तुम को लौट ही जाना था तो इस नगरी क्यूँ आये थे

जाते-जाते मुन्नी बेगम की आवाज़ में क़तील शिफ़ाई साहब की ये ग़ज़ल ज़रूर सुनें-
तुम पूछो और मैं न बताऊँ ऐसे तो हालात नहीं
एक ज़रा सा दिल टूटा है और तो कोई बात नहीं

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Thursday, February 4, 2010

देवमणि पाण्डेय की ग़ज़लें














देवमणि पाण्डेय जी का 4 जून 1958 को अवध की माटी में जन्म हुआ। हिंदी और संस्कृत के सहज साधक हैं और आप कवि तो हैं ही मंच संचालन के महारथी भी हैं। सुगम संगीत से लेकर शास्त्रीय संगीत के कार्यक्रमों का सहज-संचालन करते हैं। दो कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं - दिल की बातें और खुशबू की लकीरें। इन्होंने पिंजर, हासिल और कहाँ हो तुम जैसी कई फिल्मों के लिए गीत लिखेहैं। पिंजर के बहु चर्चित गीत "चरखा चलाती माँ" को साल 2003 के लिए बेस्ट लिरिक ऑफ दि इयर का अवार्ड मिला है। फिलहाल मुंबई में भारत सरकार के श्रमिक हैं।

सबसे पहले इनकी ग़ज़ल-

चमन को फूल घटाओं को इक नदी मिलती
हमें भी काश कभी अपनी ज़िंदगी मिलती

..सुनते हैं। गायक हैं राज कुमार रिज़वी-



अब ये ग़ज़ल आपकी नज़्र है-

खिली धूप में हूँ, उजालों में गुम हूँ
अभी मैं किसी के ख़्यालों में गुम हूँ

कहाँ जाके ठहरेगी दुनिया हवस की
नए दौर के इन सवालों में गुम हूँ

दिखाएं जो इक दिन सही राह सबको
मैं नेकी के ऐसे हवालों में गुम हूँ

मेरे दौर में भी हैं चाहत के क़िस्से
मगर मैं पुरानी मिसालों में गुम हूँ

मेरे दोस्तों की मेहरबानियाँ हैं
कि मैं जो सियासत की चालों में गुम हूँ

मेरी फ़िक्र परवाज़ करके रहेगी
भले मैं किताबों, रिसालों में गुम हूँ

मुत़कारिब(122x4) मसम्मन सालिम

दूसरी ग़ज़ल से पहले मैं कुछ चर्चा करना चाहता हूँ। आज जो ग़ज़ल लिखी या कही जा रही है वो दो हिस्सों में विभाजित होती नज़र आ रही है। एक , जो उर्दू बहरों के अनुरूप कही जा रही है जो बहरों के नियम-क़ानून का पालन करती है लेकिन लिखी देवनागरी में जा रही है और दूसरी जो देवनागरी में लिखी जा रही है,जो हिंदी के छंदों के अनुरूप कही जा रही है जिसमें शायर ज़्यादातर मात्रिक छंदों से काम लेता और मात्राओं की गणना करके ग़ज़ल पूरी कर लेता है और अब हिंदी और उर्दू दोनों में दोनों तरह से ग़ज़ल कही जा रही है। आज श्री आर. पी शर्मा जी ने बताया कि उर्दू के शायर अज़मतुल्ला खां ने मात्रिक छंदों में काफ़ी ग़ज़लें कही जो सराही भी गाईं।

अब मैं ये बात कहना चाहता हूँ कि जो ग़ज़ल बहर के अनुरूप होती है उसकी लय तो सुनिश्चित ही होती हैं क्योंकि लघु-गुरू की तरकीब इनमें बदलती नहीं। दोनों मिसरों में एक जैसी रहती है लेकिन जब हम ग़ज़ल कहने के लिए मात्रिक छंद का चुनाव करते हैं तो लय उतनी सुनिश्चित नहीं होती जितनी बहर में होती है और हाँ तीसरी बात वार्णिक छंदों और बहर में काफ़ी समानता है लेकिन शायर वार्णिक छंदों का इस्तेमाल नही करते क्योंकि काम थोड़ा मुश्किल हो जाता है जैसा कि बहर में लिखते वक़्त होता है। मीर ने भी हिंदी मीटर का प्रयोग किया जिसे आज हम अमूमन मीर का मीटर भी कह लेते हैं। मैं दोनों पक्षों का हिमायती हूँ लेकिन मेरा झुकाव ज़्यादा ग़ज़ल को बहर के अनुरूप कहने का है जिसे मैं मात्रिक ग़ज़ल से ज़्यादा लययुक़्त मानता हूँ।

इस पूरे विषय पर श्री आर. पी शर्मा का ये लेख ज़रूर पढ़ लें...

http://www.abhivyakti-hindi.org/rachanaprasang/2005/ghazal/ghazal04.htm

अब ये ग़ज़ल जिसे पांडेय जी ने मात्रिक छंद में कहा है पेश है( प्रत्येक चरण ३० मात्रा)

ख़्वाब सुहाने दिल को घायल कर जाते हैं कभी कभी
अश्कों से आँखों के प्याले भर जाते हैं कभी कभी

मेरे शहर में मिल जाते हैं ऐसे भी कुछ दीवाने
रातों-दिन सड़कों पर भटकें घर जाते हैं कभी कभी

पल पल इनके साथ रहो तुम इन्हें अकेला मत छोड़ो
अपने साए से भी बच्चे डर जाते हैं कभी कभी

खेतों को चिड़ियां चुग जातीं बीते कल की बात हुई
अब तो मौसम भी फ़सलों को चर जाते हैं कभी कभी

आँख मूँदकर यार किसी पर कभी भरोसा मत करना
अपने दोस्त भी सर पे तोहमत धर जाते हैं कभी कभी

अगर किसी पर दिल आ जाए इसमें दिल का दोष नहीं
अच्छा चेहरा देखके हम भी मर जाते हैं कभी कभी

जिनके फ़न को दुनिया अकसर अनदेखा कर देती है
ऐसे लोग जहाँ को रोशन कर जाते हैं कभी कभी

न पीने की आदत हमको न परहेज़ है पीने से
हम भी जाते हैं मयख़ाने पर जाते हैं कभी कभी

अब दिमाग़ों की ताज़गी के लिए देव मणि साहब की ग़ज़ल

जब तलक रतजगा नहीं चलता
इश्क क्या है पता नहीं चलता

एक बार फिर राज कुमार रिज़वी की आवाज़ में-

Tuesday, February 2, 2010

गुज़रे वक़्त की बातें

















वक़्त कैसे बीत जाता है पता ही नहीं चलता। ऐसा लगता है कि हम जैसे किसी पुल की तरह खड़े रहते हैं और वक़्त गाड़ियों की तरह निरंतर गुज़रता रहता है। जब द्विज जी से मिला था कालेज में उस वक़्त मेरी उम्र १८-१९ साल की थी और मैं पंजाबी में कविता लिखता था और शिव कुमार बटालवी का भक्त था जो आज भी हूँ लेकिन ग़ज़ल की तरफ़ रुझान द्विज जी की वज़ह से हुआ और ये ग़ज़ल जो आज हम प्रस्तुत कर रहे हैं द्विज जी ने तभी कही थी । वो कालेज का समय, वो उम्र, वो बे-फ़िक्री कभी लौट कर नहीं आती लेकिन मन हमेशा गुज़रे हुए वक़्त को छाती से ऐसे लगा के रखता है जैसे कोई मादा बांदर अपने मरे हुए बच्चे को छाती से लगा के घूमती हो जिसे ये विशवास ही नहीं होता कि ये बच्चा मर चुका है।

लीजिए द्विज जी की ग़ज़ल मुलाहिज़ा फ़रमाइए-

हमने देखी भाली धूप
उजली, पीली, काली धूप

अपना हर कोना सीला
उनकी डाली-डाली धूप

अम्बर-सा उनका सूरज
अपनी सिमटी थाली धूप

बर्फ़-घरों में तो हमको
लगती है अब गाली धूप

मछली जैसे फिसली है
हमने जब भी सम्हाली धूप

पास इसे अपने रख लो
ये लो अपनी जाली धूप

शिव कुमार बटालवी का ज़िक्र हुआ है तो क्यों न आसा सिंह मस्ताना की आवाज़ में शिव की ये ग़ज़ल-

मैनूँ तेरा शबाब लै बैठा
रंग गोरा गुलाब लै बैठा
किंनी बीती ते किंनी बाकी ए
मैनूँ एहो हिसाब लै बैठा..

सुनी जाए-