Friday, December 31, 2010

वक़्त ने फिर पन्ना पलटा है















न पाने से किसी के है, न कुछ खोने से मतलब है
ये दुनिया है इसे तो कुछ न कुछ होने से मतलब है

गुज़रते वक़्त के पैरों में ज़ंजीरें नहीं पड़तीं
हमारी उम्र को हर लम्हा कम होने से मतलब है..वसीम बरेलवी

इस नये साल के मौक़े पर द्विज जी की ग़ज़ल मुलाहिज़ा कीजिए जो किसी दुआ से कम नहीं है और आप सब को नये साल की शुभकामनाएँ।

द्विजेन्द्र द्विज

ज़िन्दगी हो सुहानी नये साल में
दिल में हो शादमानी नये साल में

सब के आँगन में अबके महकने लगे
दिन को भी रात-रानी नये साल में

ले उड़े इस जहाँ से धुआँ और घुटन
इक हवा ज़ाफ़रानी नये साल में

इस जहाँ से मिटे हर निशाँ झूठ का
सच की हो पासबानी नये साल में

है दुआ अबके ख़ुद को न दोहरा सके
नफ़रतों की कहानी नये साल में

बह न पाए फिर इन्सानियत का लहू
हो यही मेहरबानी नये साल में

राजधानी में जितने हैं चिकने घड़े
काश हों पानी-पानी नये साल में

वक़्त! ठहरे हुए आँसुओं को भी तू
बख़्शना कुछ रवानी नये साल में

ख़ुशनुमा मरहलों से गुज़रती रहे
दोस्तों की कहानी नये साल में

हैं मुहब्बत के नग़्मे जो हारे हुए
दे उन्हें कामरानी नये साल में

अब के हर एक भूखे को रोटी मिले
और प्यासे को पानी नये साल में

काश खाने लगे ख़ौफ़ इन्सान से
ख़ौफ़ की हुक्मरानी नये साल में

देख तू भी कभी इस ज़मीं की तरफ़
ऐ नज़र आसमानी ! नये साल में

कोशिशें कर, दुआ कर कि ज़िन्दा रहे
द्विज ! तेरी हक़-बयानी नये साल में.

Monday, December 6, 2010

सत्यप्रकाश शर्मा की एक ग़ज़ल

सत्यप्रकाश शर्मा

तस्वीर का रुख एक नहीं दूसरा भी है
खैरात जो देता है वही लूटता भी है

ईमान को अब लेके किधर जाइयेगा आप
बेकार है ये चीज कोई पूछता भी है?

बाज़ार चले आये वफ़ा भी, ख़ुलूस भी
अब घर में बचा क्या है कोई सोचता भी है

वैसे तो ज़माने के बहुत तीर खाये हैं
पर इनमें कोई तीर है जो फूल सा भी है

इस दिल ने भी फ़ितरत किसी बच्चे सी पाई है
पहले जिसे खो दे उसे फिर ढूँढता भी है

हज़ज की मुज़ाहिफ़ शक्ल
मफ़ऊल मफ़ाईल मुफ़ाईल मफ़ाईल
22 1 1221 1221 122(1)


शायर का पता-
२५४ नवशील धाम
कल्यान पुर-बिठुर मार्ग, कानपुर-१७
मोबाइल-07607435335

Friday, December 3, 2010

सोच के दीप जला कर देखो- अंतिम क़िस्त

मैनें लफ़्ज़ों को बरतने में लहू थूक दिया
आप तो सिर्फ़ ये देखेंगे ग़ज़ल कैसी है

मुनव्वर साहब का ये शे’र बेमिसाल है और अच्छी ग़ज़ल कहने में होने वाली मश्क की तरफ इशारा करता है।लफ़्ज़ों को बरतने का सलीका आना बहुत ज़रूरी है और ये उस्ताद की मार और निरंतर अभ्यास से ही आ सकता है।ग़ज़ल जैसी सिन्फ़ का हज़ारों सालों से ज़िंदा रहने का यही कारण है शायर शे’र कहने के लिए बहुत मश्क करता है और इस्लाह शे’र को निखार देती है। लफ़्ज़ों की थोड़ी सी फेर-बदल से मायने ही बदल जाते हैं।

नाज़ुकी उसके लब की क्या कहिए,
पंखुड़ी इक गुलाब की
सी है

दूसरे मिसरे में सी के इस्तेमाल ने शे’र की नाज़ुकी को दूना कर दिया है। इसी हुनर की तरफ़ मुनव्वर साहब ने इशारा किया है। खैर!मुशायरे की अंतिम क़िस्त में मुझे अपनी ग़ज़ल आपके सामने रखते हुए एक डर सा लग रहा है। जब आप ग़ज़ल की बारीकियों की बात करते हैं तो अपना कलाम रखते वक़्त डर लगेगा ही। ये बहर सचमुच कठिन थी और अब पता चला की मुनीर नियाज़ी ने पाँच ही शे’र क्यों कहे। कई दिन इस ग़ज़ल पर द्विज जी से चर्चा होती रही। और ग़ज़ल आपके सामने है । Only Result counts , not long hours of working..ये भी सच है।











सतपाल ख़याल

उन गलियों में जा कर देखो
गुज़रा वक़्त बुला कर देखो

क्या-क्या जिस्म के साथ जला है
अब तुम राख उठा कर देखो

क्यों सूली पर सच का सूरज
सोच के दीप जला कर देखो

हम क्या थे? क्या हैं? क्या होंगे?
थोड़ी खाक़ उठा कर देखो

दर्द के दरिया थम से गए हैं
ज़ख़्म नए फिर खा कर देखो

मुशायरे में हिस्सा लेने वाले सब शायरों का तहे-दिल से शुक्रिया और कुछ शायरों को तकनीकी खामियों के चलते हम शामिल नहीं कर सके, जिसका हमें खेद है।