Thursday, September 19, 2013

फ़ानी जोधपुरी

 
ग़ज़ल
 
रात की बस्ती बसी है घर चलो
तीरगी ही तीरगी है घर चलो 


क्या भरोसा कोई पत्थर आ लगे
जिस्म पे शीशागरी है घर चलो 


हू-ब-हू बेवा की उजड़ी मांग सी
ये गली सूनी पड़ी है घर चलो 


तू ने जो बस्ती में भेजी थी सदा

 लाश उसकी ये पड़ी है घर चलो 

क्या करोगे सामना हालत का
जान तो अटकी हुई है घर चलो 


कल की छोड़ो कल यहाँ पे अम्न था
अब फ़िज़ा बिगड़ी हुई है घर चलो 


तुम ख़ुदा तो हो नहीं इन्सान हो
फ़िक्र क्यूँ सबकी लगी है घर चलो 


माँ अभी शायद हो "फ़ानी" जागती
घर की बत्ती जल रही है घर चलो