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Thursday, January 1, 2009

नये साल की आमद पर- विशेष

नए साल की सब को बधाई और इस मौके पर कुछ ग़ज़लें प्रस्तुत हैं. मै सब शायरों का आभारी हूँ जिन्होंने अपना-अपना कलाम हमें भेजा.
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प्राण शर्मा की एक ग़ज़ल:








गज़ल:

छेड़ ऐसी ग़ज़ल इस नए साल में
झूमे मन का कँवल इस नए साल में

कोई ग़मगीन माहौल क्यों हो भला
हर तरफ़ हो चहल इस नए साल में

गिर न पाये कभी है यही आरजू
हसरतों का महल इस नए साल में

याद आए सदा कारनामा तेरा
मुश्किलें कर सहल इस नए साल में

नेकियों की तेरी यूँ कमी तो नहीं
हर बदी से निकल इस नए साल में

पहले ख़ुद को बदल कर दिखा हमसफ़र
फिर तू जग को बदल इस नये साल में

रोज़ इतना ही काफी है तेरे लिए
मुस्करा पल दो पल इस नए साल में

बहरे-मुतदारिक मसम्मन सालिम
(फ़ाइलुन x4)


देवी नागरानी की एक ग़ज़ल:








गज़ल:

मुबारक नया साल फिर आ रहा है
जिसे देखिये झूमकर गा रहा है

हूआ ख़त्म आंसू बहाने का मौसम
ख़ुशी देके हमको वो हर्षा रहा है

नए साल ने भर दिए है ख़ज़ाने
जिसे देखिये वो ही इतरा रहा है

है मस्ती दिलों में नशा है निराला
कोई जाम पर जाम छलका रहा है

भरो अपना दामन बड़ों की दुआ से
नया साल हमको ये समझा रहा है

यह पुरकैफ़ माहौल देवी है भाया
जिसे देखिये खुश नज़र आ रहा है

फ़ऊलुन x4
बहरे-मुतकारिब मसम्मन सालिम


डा. अहमद अली वर्की आज़मी की एक ग़ज़ल:








गज़ल:

नया साल है और नई यह ग़ज़ल
सभी का हो उज्जवल यह आज और कल

ग़ज़ल का है इस दौर मेँ यह मेज़ाज
है हालात पर तबसेरा बर महल

बहुत तल्ख़ है गर्दिशे रोज़गार
न फिर जाए उम्मीद पर मेरी जल

मेरी दोस्ती का जो भरते हैँ दम
छुपाए हैँ ख़ंजर वह ज़ेरे बग़ल

न हो ग़म तो क्या फिर ख़ुशी का मज़ा
मुसीबत से इंसाँ को मिलता है बल

वह आएगा उसका हूँ मैं मुंतज़िर
न जाए खुशी से मेरा दम निकल

है बेकैफ हर चीज़ उसके बग़ैर
नहीँ चैन मिलता मुझे एक पल

न समझेँ अगर ग़म को ग़म हम सभी
तो हो जाएँगी मुशकिले सारी हल

सभी को है मेरी यह शुभकामना
नया साल सबके लिए हो सफल

ख़ुदा से है बर्की मेरी यह दुआ
ज़माने से हो दूर जंगो जदल

मुतकारिब की मुजाहिफ़ शक्ल
122 122 122 12


चन्द्रभान भारद्वाज की एक ग़ज़ल:










गज़ल:

पड़ी मांग सूनी कटी है कलाई;
नये साल की बंधु कैसी बधाई।

खड़ा है खुले आम दुश्मन हमारा,
कुटिल उसका मन आंख में बॆहयाई।

बनाकर गये धूल चंदन वतन की,
हमें गर्व है उन शहीदों पे भाई।

सधे थे कदम हाथ लाखों जुड़े थे,
बहे आँसुओं ने शमा जब जलाई।

वो बलिदान है आरती इस वतन की,
जलाई जो लौ हर तरफ जगमगाई ।

ये इतिहास भूगोल बदले तुम्हारा,
'भारद्वाज'सरहद अगर फिर जगाई।

फ़ऊलुन x4
बहरे-मुतकारिब मसम्मन सालिम


द्विजेन्द्र द्विज की एक ग़ज़ल:








गज़ल:

ज़िन्दगी हो सुहानी नये साल में
दिल में हो शादमानी नये साल में

सब के आँगन में अबके महकने लगे
दिन को भी रात-रानी नये साल में

ले उड़े इस जहाँ से धुआँ और घुटन
इक हवा ज़ाफ़रानी नये साल में

इस जहाँ से मिटे हर निशाँ झूठ का
सच की हो पासबानी नये साल में

है दुआ अबके ख़ुद को न दोहरा सके
नफ़रतों की कहानी नये साल में

बह न पाए फिर इन्सानियत का लहू
हो यही मेहरबानी नये साल में

राजधानी में जितने हैं चिकने घड़े
काश हों पानी-पानी नये साल में

वक़्त ! ठहरे हुए आँसुओं को भी तू
बख़्शना कुछ रवानी नये साल में

ख़ुशनुमा मरहलों से गुज़रती रहे
दोस्तों की कहानी नये साल में

हैं मुहब्बत के नग़्मे जो हारे हुए
दे उन्हें कामरानी नये साल में

अब के हर एक भूखे को रोटी मिले
और प्यासे को पानी नये साल में

काश खाने लगे ख़ौफ़ इन्सान से
ख़ौफ़ की हुक्मरानी नये साल में

देख तू भी कभी इस ज़मीं की तरफ़
ऐ नज़र आसमानी ! नये साल में

कोशिशें कर, दुआ कर कि ज़िन्दा रहे
द्विज ! तेरी हक़-बयानी नये साल में.


बहरे-मुतदारिक मसम्मन सालिम
(फ़ाइलुन x4)** शादमानी - प्रसन्नता ; जाफ़रानी-केसर जैसी सुगन्ध जैसी ; पासबानी-सुरक्षा ; हुक्मरानी-सत्ता,शासन ;
हक़-बयानी : सच कहने की आदत ; कामरानी-सफलता; मरहले-पड़ाव


देवमणि पांडेय की एक ग़ज़ल:










गज़ल:

नया साल हमसे दग़ा न करे
गए साल जैसी ख़ता न करे

अभी तक है छलनी हमारा शहर
नया ज़ख़्म खाए ख़ुदा न करे

नए साल में रब से मांग दुआ
किसी को किसी से जुदा न करे

सभी के लिए ज़िंदगी है मेरी
भले कोई मुझसे वफ़ा न करे

फरिश्ता तुझे मान लेगा जहां
अगर तू किसी का बुरा न करे

मोहब्बत से कह दो परे वो रहे
मेरी ज़िंदगी बेमज़ा न करे

झमेले बहुत ज़िंदगानी के हैं
तुझे भूल जाऊं ख़ुदा न करे

न टूटे कोई ख़्वाब इसके सबब
कुछ ऐसा ये बादे-सबा न करे

तो ख़्वाबों की ताबीर मुमकिन नहीं
अगर ज़िंदगानी वफ़ा न करे

अमीरों के दर से न पाएगा कुछ
भिखारी से कह दो दुआ न करे

बहरे-मुतकारिब मुजाहिफ़ शक्ल


गौतम राजऋषि की एक ग़ज़ल:








गज़ल:

दूर क्षितिज पर सूरज चमका,सुब्‍ह खड़ी है आने को
धुंध हटेगी,धूप खिलेगी,साल नया है छाने को

पेड़ों की फुनगी पर आकर बैठ गयी जो धूप जरा
आँगन में ठिठकी सर्दी को भी आये तो गरमाने को

टेढ़ी भौंहों से तो कोई बात नहीं बनने वाली
मुट्ठी कब तक भींचेंगे हम,हाथ मिले याराने को

हुस्नो-इश्क पुरानी बातें,कैसे इनसे शेर सजे
आज गज़ल तो तेवर लायी सोती रूह जगाने को

साहिल पर यूं सहमे-सहमे वक्‍त गंवाना क्या यारों
लहरों से टकराना होगा पार समन्दर जाने को

प्रत्यंचा की टंकारों से सारी दुनिया गुंजेगी
देश खड़ा अर्जुन बन कर गांडिव पे बाण चढ़ाने को

साल गुजरता सिखलाता है,भूल पुरानी बातें अब
साज नया हो,गीत नया हो,छेड़ नये अफ़साने को

अपने हाथों की रेखायें कर ले तू अपने वश में
’गौतम’ तेरी रूठी किस्मत आये कौन मनाने को

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सतपाल ख्याल की एक ग़ज़ल:









गज़ल:

जश्न है हर सू , साल नया है
हम भी देखें क्या बदला है.

गै़र के घर की रौनक है वो
अब वो मेरा क्या लगता है.

दुनिया पीछे दिलबर आगे
मन दुविधा मे सोच रहा है.

तख्ती पे 'क' 'ख' लिखता वो-
बचपन पीछे छूट गया है.

नाती-पोतों ने जिद की तो
अम्मा का संदूक खुला है.

याद ख्याल आई फिर उसकी
आँख से फिर आँसू टपका है.

दहशत के लम्हात समेटे
आठ गया अब नौ आता है.


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Thursday, September 11, 2008

छोटी बहर की दो ग़ज़लें









ग़ज़ल १

उघड़ी चितवन
खोल गई मन

उजले हैं तन
पर मैले मन

उलझेंगे मन
बिखरेंगे जन

अंदर सीलन
बाहर फिसलन

हो परिवर्तन
बदलें आसन

बेशक बन—ठन
जाने जन—जन

भरता मेला
जेबें ठन—ठन

जर्जर चोली
उधड़ी सावन

टूटा छप्पर
सर पर सावन

मन ख़ाली हैं
लब 'जन—गण—मन'

तन है दल—दल
मन है दर्पन

मृत्यु पोखर
झरना जीवन

निर्वासित है
क्यूँ 'जन—गण—मन'

खलनायक का
क्यूँ अभिनंदन

द्विजेंन्द्र द्विज
**********










ग़ज़ल २

क्या सितम है
दर्द कम है

राहत-ए-जां
हर सितम है

क़लब सोजां
चश्म नम है

ग़म बहुत हो
फ़िर भी कम है.

दिल हमारा
जाम-ए-जम है

जिंदगी कम
दम-ब-दम है

दिल मे ढूँढो
वो सनम है.

क़लब-ए-अखगर
वक्फ़-ए-गम है.

हनीफ़ अखगर

(ये यक रुक्नी ग़ज़ल है -फ़ाइलातुन-२१२२)







Tuesday, September 9, 2008

एक रदीफ़ दो शायर - इंशा और फ़िराक











जोग बिजोग की बातें झूठी सब जी का बहलाना हो|
फिर भी हम से जाते जाते एक ग़ज़ल सुन जाना हो|

सारी दुनिया अक्ल की बैरी कौन यहां पर सयाना हो,
नाहक़ नाम धरें सब हम को दीवाना दीवाना हो|

तुम ने तो इक रीत बना ली सुन लेना शर्माना हो,
सब का एक न एक ठिकाना अपना कौन ठिकाना हो|

नगरी नगरी लाखों द्वारे हर द्वारे पर लाख सुखी,
लेकिन जब हम भूल चुके हैं दामन का फैलाना हो|

तेरे ये क्या जी में आई खींच लिये शर्मा कर होंठ,
हम को ज़हर पिलाने वाली अमृत भी पिलवाना हो|

हम भी झूठे तुम भी झूठे एक इसी का सच्चा नाम,
जिस से दीपक जलना सीखा परवाना मर जाना हो|

सीधे मन को आन दबोचे मीठी बातें सुन्दर लोग,
'मीर', 'नज़ीर', 'कबीर', और 'इन्शा' सब का एक घराना हो|
**













हमसे फ़िराक़ अकसर छुप-छुप कर पहरों-पहरों रोओ हो
वो भी कोई हमीं जैसा है क्या तुम उसमें देखो हो

जिनको इतना याद करो हो चलते-फिरते साये थे
उनको मिटे तो मुद्दत गुज़री नामो-निशाँ क्या पूछो हो

जाने भी दो नाम किसी का आ गया बातों-बातों में
ऐसी भी क्या चुप लग जाना कुछ तो कहो क्या सोचो हो

पहरों-पहरों तक ये दुनिया भूला सपना बन जाए है
मैं तो सरासर खो जाऊं हूँ याद इतना क्यों आओ हो

क्या गमे-दौराँ की परछाईं तुम पर भी पड़ जाए है
क्या याद आ जाए है यकायक क्यों उदास हो जाओ हो

झूठी शिकायत भी जो करूँ हूँ पलक दीप जल जाए हैं
तुमको छेड़े भी क्या तुम तो हँसी-हँसी में रो दो हो

ग़म से खमीरे-इश्क उठा है हुस्न को देवें क्या इलज़ाम
उसके करम पर इतनी उदासी दिलवालो क्या चाहो हो

एक शख्स के मर जाये से क्या हो जाये है लेकिन
हम जैसे कम होये हैं पैदा पछताओगे देखो हो

इतनी वहशत इतनी वहशत सदके अच्छी आँखों के
तुम न हिरन हो मैं न शिकारी दूर इतना क्यों भागो हो

मेरे नग्मे किसके लिए हैं खुद मुझको मालूम नहीं
कभी न पूछो ये शायर से तुम किसका गुण गाओ हो

पलकें बंद अलसाई जुल्फ़ें नर्म सेज पर बिखरी हुई
होटों पर इक मौजे-तबस्सुम सोओ हो या जागो हो

इतने तपाक से मुझसे मिले हो फिर भी ये गैरीयत क्यों
तुम जिसे याद आओ हो बराबर मैं हूँ वही तुम भूलो हो

कभी बना दो हो सपनों को जलवों से रश्के-गुलज़ार
कभी रंगे-रुख बनकर तुम याद ही उड़ जाओ हो

गाह तरस जाये हैं आखें सजल रूप के दर्शन को
गाह नींद बन के रातों को नैन-पटों में आओ हो

इसे दुनिया ही में है सुने हैं इक दुनिया-ए-महब्बत भी
हम भी उसी जानिब जावें हैं बोलो तुम भी आओ हो

बहुत दिनों में याद किया है बात बनाएं क्या उनसे
जीवन-साथी दुःख पूछे हैं किसको हमें तुम सौंपो हो

चुपचुप-सी फ़ज़ा-ए-महब्बत कुछ कुछ न कहे है खलवते-राज़
नर्म इशारों से आँखों के बात कहाँ पहुँचाओ हो

अभी उसी का इंतज़ार था और कितना ऐ अहले-वफ़ा
चश्मे-करम जब उठने लगी है तो अब तुम शरमाओ हो

ग़म के साज़ से चंचल उंगलियां खेल रही हैं रात गए
जिनका सुकूत, सुकूते-आबाद है वे परदे क्यों छेड़ो हो

कुछ तो बताओ रंग-रूप भी तुम उसका ऐ अहले-नज़र
तुम तो उसको जब देखो हो देखते ही रह जाओ हो

अकसर गहरी सोच में उनको खोया-खोया पावें हैं
अब है फ़िराक़ का कुछ रोज़ो से जो आलम क्या पूछो हो
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