Saturday, March 15, 2008

मेरे गुरु जी का परिचय और उनकी ग़ज़लें











नाम: द्विजेन्द्र ‘द्विज’

पिता का नाम: स्व. मनोहर शर्मा‘साग़र’ पालमपुरी
जन्म तिथि: 10 अक्तूबर,1962.
शिक्षा: हिमाचल प्रदेश विश्व विद्यालय के सेन्टर फ़ार पोस्ट्ग्रेजुएट स्ट्डीज़,धर्मशाला से
अँग्रेज़ी साहित्य में सनातकोत्तर डिग्री
प्रकाशन: जन-गण-मन(ग़ज़ल संग्रह)प्रकाशन वर्ष-२००३
सम्पादन: डा. सुशील कुमार फुल्ल द्वारा संपादित पात्रिका रचना के ग़ज़ल अंक का अतिथि सम्पादन
रचनाएं: * दीक्षित दनकौरी के सम्पादन में‘ग़ज़ल …दुष्यन्त के बाद’ (वाणी प्रकाशन) ,
* डा.प्रेम भारद्वाज के संपादन में ‘सीराँ’(नैशनल बुक ट्रस्ट),
*उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ की पत्रिका साहित्य भारती के नागरी ग़ज़ल अंक,
*रमेश नील कमल के सम्पादन में दर्द अभी तक हमसाए हैं ,
*इम्तियाज़ अहमद ग़ाज़ी द्वारा संपादित चांद सितारे,
*नासिर यूसुफ़ज़ई द्वारा संपादित कुछ पत्ते पीले कुछ हरे इत्यादि संकलनों में संकलित
*नवनीत,उद्भावना,नयापथ,मसिकागद,बराबर,सुपरबाज़ारपत्रिका,इरावती,विपाशा,हिमप्रस्थ,कारख़ाना,
अर्बाब-ए-क़लम,गुफ़्तगू,गोलकोंडा दर्पण, क्षितिज, ग़ज़ल, नई ग़ज़ल,सार्थक,शीराज़ा(हिन्दी),पुन:,
तर्जनी, शब्दसंस्कृति, शिवम, उद्गार, भभूति, पोइटक्रिट, हिमाचल मित्र, संवाद,सर्जक,
रचना, फ़नकार, इत्यादि पत्रिकाओं मेंI
*दैनिक ट्रिब्यून ,जनसत्ता, इंडियन एक्सप्रेस,लोकमत समाचार,राष्ट्रीय सहारा, दैनिक भास्कर,
अमर उजाला, दैनिक जागरण, अजीत समाचार,भारतेन्दु शिखर, गिरिराज, दैनिक मिलाप,
वीर प्रताप,पंजाब केसरी,दिव्य हिमाचल, अजीत समाचारइत्यादि पत्रों में
*कई राष्ट्र एवं राज्य स्तरीय कवि सम्मेलनों मुशायरों में प्रतिभाग
*पहाड़ी भाषा में ग़ज़लें, कहानियाँ
*आकाशवाणी से प्रसारित
सम्प्रति: प्राध्यापक:अँग्रेज़ी,ग़ज़लकार, समीक्षक
पत्राचार: राजकीय पालीटेक्निक, कांगड़ा -176001 (हिमाचल प्रदेश)
ई-मेल : dwij.ghazal@gmail.com


आज इस कड़ी में द्विज जी की एक ग़ज़ल पेश कर रहा हूं. बाकी गज़लें वो कल भेजेंगे और हमे इस ग़ज़ल के बारे में भी बताऎंगे.


ग़ज़ल

ये कौन छोड़ गया इस पे ख़ामियाँ अपनी
मुझे दिखाता है आईना झुर्रियाँ अपनी

बना के छाप लो तुम उनको सुर्ख़ियाँ अपनी
कुएँ में डाल दीं हमने तो नेकियाँ अपनी

बदलते वक़्त की रफ़्तार थामते हैं हुज़ूर !
बदलते रहते हैं अकसर जो टोपियाँ अपनी

ज़लील होता है कब वो उसे हिसाब नहीं
अभी तो गिन रहा है वो दिहाड़ियाँ अपनी

नहीं लिहाफ़, ग़िलाफ़ों की कौन बात करे
तू देख फिर भी गुज़रती हैं सर्दियाँ अपनी

क़तारें देख के लम्बी हज़ारों लोगों की
मैं फाड़ देता हूँ अकसर सब अर्ज़ियाँ अपनी

यूँ बात करता है वो पुर-तपाक लहज़े में
मगर छुपा नहीं पाता वो तल्ख़ियाँ अपनी

भले दिनों में कभी ये भी काम आएँगी
अभी सँभाल के रख लो उदासियाँ अपनी

हमें ही आँखों से सुनना नहीं आता उनको
सुना ही देते हैं चेहरे कहानियाँ अपनी

मेरे लिये मेरी ग़ज़लें हैं कैनवस की तरह
उकेरता हूँ मैं जिन पर उदासियाँ अपनी

तमाम फ़ल्सफ़े ख़ुद में छुपाए रहती हैं
कहीं हैं छाँव कहीं धूप वादियाँ अपनी

अभी जो धुन्ध में लिपटी दिखाई देती है
कभी तो धूप नहायेंगी बस्तियाँ अपनी

बुलन्द हौसलों की इक मिसाल हैं ये भी
पहाड़ रोज़ दिखाते हैं चोटियाँ अपनी

बुला रही है तुझे धूप 'द्विज' पहाड़ों की
तू खोलता ही नहीं फिर भी खिड़कियाँ अपनी