Tuesday, January 19, 2010
राहत इन्दौरी साहब और अंजुम रहबर
राहत साहब किसी परिचय के मोहताज़ नहीं हैं। राहत साहब ने एक जनवरी को जीवन के साठ वर्ष पूरे किए हैं। इसी महीने रामकथा वाचक मुरारी बापू ने राहत इंदौरी साहब के गजल संग्रह ‘नाराज’ के हिन्दी संस्करण का विमोचन करते हुए कहा-
राम वही है, जो राहत दे
जो आहत करता है, वह रावण होता है
यही वो मिली-जुली तहजीब है जिसका परिचय राहत साहब और मुरारी बापु ने दिया है।
देव मणि पांडेय जी की बदौलत ये दो ग़ज़लें हमें मिली हैं जो राहत साहब ने ही उन्हें भेजी हैं और इनको राहत साहब की अनुमति से यहाँ छापा जा रहा है। पहली ग़ज़ल बिल्कुल ताज़ा है और आज की ग़ज़ल पर पहली दफ़ा छाया हो रही है। इसके इस शे’र को लेकर कल द्विज जी से भी बात हुई और राहत साहब से भी पहले शे’र देखें-
कौन छाने लुगात का दरिया
आप का एक इक्तेबास बहुत
कौन देखे शब्दकोश, कौन जाए गहराई में जो आपने कह दिया,जो ख़ुदा ने कह दिया, जो भगवान ने कह दिया, जो उन्होंने quote कर दिया वो हर्फ़े-आख़िर है। हम चाहें भी तो उनके कहे के माअनी नहीं समझ सकते। राहत साहब ने जैसे कहा कि धार्मिक-ग्रंथों में बहुत से हर्फ़ अब तक लोग समझ नहीं पाए हैं लेकिन वो ख़ुदा के, भगवान के शब्द हैं उन्हें सुनना,पढ़ना ही काफ़ी है । एक शे’र कई आयाम समेटे होता है और पाठक उसके अर्थ जुदा-जुदा ले सकता है। यक़ीनन ये शे’र राहत साहब जैसे शायर ही कह सकते हैं और हम भी अब ये कह सकते हैं कि अगर राहत साहब ने कहा है तो हर्फ़े-आखिर है उसके लिए हमें बहस या शब्द-कोश देखने कि ज़रूरत नहीं। इक्तेबास यानि किसी वाक्या को ज्यूँ का त्यूँ बिना किसी बहस के स्वीकार कर लेना है। हिंदी में इसे उद्वरण कह सकते हैं।
आज की ग़ज़ल को राहत साहब भी देखेंगे । आज की ग़ज़ल का जो मक़सद था वो पूरा हो रहा है और ये ब्लाग इन महान शायरों तक पहुँच रहा है जो निसंदेह खुशी की बात है। ग़ज़लें मुलाहिज़ा कीजिए-
ग़ज़ल
एक दिन देखकर उदास बहुत
आ गए थे वो मेरे पास बहुत
ख़ुद से मैं कुछ दिनों से मिल न सका
लोग रहते हैं आस-पास बहुत
अब गिरेबां बा-दस्त हो जाओ
कर चुके उनसे इल्तेमास बहुत
किसने लिक्खा था शहर का नोहा
लोग पढ़कर हुए उदास बहुत
अब कहाँ हमसे पीने वाले रहे
एक टेबल पे इक गिलास बहुत
तेरे इक ग़म ने रेज़ा-रेज़ा किया
वर्ना हम भी थे ग़म-शनास बहुत
कौन छाने लुगात का दरिया
आप का एक इक्तेबास बहुत
ज़ख़्म की ओढ़नी लहू की कमीज़
तन सलामत रहे लिबास बहुत
इक्तेबास-quote,लुगात-शब्दकोश,इल्तेमास-गुज़ारिश
बहरे-खफ़ीफ़ की मुज़ाहिफ़ शक़्ल
फ़ा’इ’ला’तुन मु’फ़ा’इ’लुन फ़ा’लुन
2122 1212 22/112
दो
हरेक चहरे को ज़ख़्मों का आइना न कहो
ये ज़िंदगी तो है रहमत इसे सज़ा न कहो
न जाने कौन सी मजबूरियों का क़ैदी हो
वो साथ छोड़ गया है तो बेवफ़ा न कहो
तमाम शहर ने नेज़ों पे क्यों उछाला मुझे
ये इत्तेफ़ाक़ था तुम इसको हादिसा न कहो
ये और बात के दुशमन हुआ है आज मगर
वो मेरा दोस्त था कल तक उसे बुरा न कहो
हमारे ऐब हमें ऊँगलियों पे गिनवाओ
हमारी पीठ के पीछे हमें बुरा न कहो
मैं वाक़यात की ज़ंजीर का नहीं कायल
मुझे भी अपने गुनाहो का सिलसिला न कहो
ये शहर वो है जहाँ राक्षस भी हैं राहत
हर इक तराशे हुए बुत को देवता न कहो
बहरे-मुजतस की मुज़ाहिफ़ शक्ल-
म'फ़ा'इ'लुन फ़'इ'लातुन म'फ़ा'इ'लुन फ़ा'लुन
1212 1122 1212 22/ 112
और जगजीत सिंह की आवाज़ में राहत साहब की एक ग़ज़ल सुनिए-
और अब बात करते हैं श्री मति अंजुम रहबर कि जो राहत इन्दौरी साहब की पत्नी हैं और बहुत अच्छी शाइरा भी हैं। उनकी इस ग़ज़ल से तो सारी दुनिया वाकिफ़ है। आप भी पढ़िए-
अंजुम रहबर
सच बात मान लीजिये चेहरे पे धूल है
इल्ज़ाम आईनों पे लगाना फ़िज़ूल है.
तेरी नवाज़िशें हों तो कांटा भी फूल है
ग़म भी मुझे क़बूल, खुशी भी क़बूल है
उस पार अब तो कोई तेरा मुन्तज़िर नहीं
कच्चे घड़े पे तैर के जाना फ़िज़ूल है
जब भी मिला है ज़ख्म का तोहफ़ा दिया मुझे
दुश्मन ज़रूर है वो मगर बा-उसूल है
और अंजुम जी की आवाज़ में सुनिए-
राहत साहब की वेब-साइट का लिंक -
http://www.rahatindori.co.in/
Wednesday, January 13, 2010
विलास पंडित-ग़ज़लें और परिचय
1965 में जन्में विलास पंडित "मुसाफ़िर" बहुत अच्छे ग़ज़लकार हैं और अब तक तीन किताबें परस्तिश,संगम और आईना भी छाया हो चुकी हैं। कई गायकों ने इनके लिखे गीतों को आवाज़ भी दी है। पिछले 25 सालों से साहित्य की सेवा कर रहे हैं।
आज की ग़ज़ल पर इनकी तीन ग़ज़लें हाज़िर हैं- नीचे दिए गए संगीत के लिंक को आन कर लें ग़ज़लों का मज़ा दूना हो जाएगा।
एक
वो यक़ीनन दर्द अपने पी गया
जो परिंदा प्यासा रह के जी गया
झाँकता था जब बदन मिलती थी भीख
क्यों मेरा दामन कोई कर सी गया
उसमें गहराई समंदर की कहाँ
जो मुझे दरिया समझ कर पी गया
चहचहाकर सारे पंछी उड़ गए
वार जब सैय्याद का खाली गया
लौट कर बस्ती में फिर आया नहीं
बनके लीडर जब से वो दिल्ली गया
कोई रहबर है न है मंज़िल कोई
वो "मुसाफ़िर" लौट कर आ ही गया
रमल की मुज़ाहिफ़ शक़्ल
फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलुन
दो
भूल गया है खुशियों की मुस्कान शहर
पत्थर जैसे चहरों की पहचान शहर
बाशिंदे भी अब तक न पहचान सके
ज़िंदा भी है या कि है बेजान शहर
सोच ले भाई जाने से पहले ये बात
लूट चुका है लाखों के अरमान शहर
ज़िंदा है गाँवो में अब तक सच्चाई
दो और दो को पाँच करे *मीज़ान शहर
उसकी नज़रों में जो "मुसाफ़िर" शायर है
बस ख्वाबों की दुनिया का उनवान शहर
*मीज़ान-पैमाना (scale)
पाँच फ़ेलुन+1 फ़े
तीन
किसी का जहाँ में सहारा नहीं है
ग़मों की नदी का किनारा नहीं है
है अफसोस मुझको मुकद्दर में मेरे
चमकता हुआ कोई तारा नहीं है
ख़ुदा उस परी का तसव्वुर भी क्यूँ हो
जिसे आसमाँ से उतारा नहीं है
जो चाहो तो चाहत का इज़हार कर दो
अभी मैंने हसरत को मारा नहीं है
यूँ कहने को तो ज़िंदगी है हमारी
मगर एक पल भी हमारा नहीं है
ऐ ! मंज़िल तू ख़ुद क्यूँ करीब आ रही है
अभी वो "मुसाफिर" तो हारा नहीं है
मुत़कारिब(122x4) मसम्मन सालिम
चार फ़ऊलुन
संगीत और शायरी एक दूसरे के पूरक हैं तो सोचा क्यों न हर पोस्ट के साथ कुछ रुहानी ख़ुराक परोसी जाए । लीजिए सुनिए हरि प्रसाद चौरसिया की बांसुरी और विलास जी की ग़ज़लें पढ़ते रहिए-
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शायर का पता-
301, स्वर्ण प्लाज़ा ,प्लाट न.-1109
स्कीम न.114-1,ए.बी रोड
इन्दौर
099260 99019
0731-4245859
कोई शाख़े-सब्ज़ हिला साईं- महमूद अकरम
शायर होना आसान है लेकिन वली होना बहुत मुशकिल है-
ये मसाइल-ए-तसव्वुफ़, ये तेरा बयान “ग़ालिब”
तुझे हम वली समझते, जो न बादाख़्वार होता
यूँ तो शायरी में गा़लिब का स्थान किसी औलिए से कम नहीं लेकिन ग़ालिब को महफ़िलों में गाया जाता है और कबीर को मंदिरों में। इस फ़र्क को गा़लिब समझते थे।
साईं इतना दीजिये, जा मे कुटुम समाय
मैं भी भूखा न रहूँ, साधु न भूखा जाय ..कबीर
पीरो-मुर्शिद, औलिये, संत,फ़कीर और वली इन्हें हम "साईं" कहकर बुलाते हैं, साईं यानि मालिक । पूज्य शिरडी के संत तो "साईं" नाम से ही जाने जाते हैं। साईं रदीफ़ पर एक बहुत सादा और तसव्वुफ़ के रंग में रंगी एक ग़ज़ल आज आपकी नज़्र कर रहा हूँ जिसके शायर हैं जनाब महमूद अकरम जो न्यू जर्सी में रहते हैं। उनकी ये ग़ज़ल दो साल पहले पढ़ी थी,आप भी मुलाहिज़ा कीजिए-
ग़ज़ल
मेरे हक़ में कोई दुआ साईं
बे-रंग हूँ, रंग चढ़ा साईं
मैं कौन हूँ,क्या हूँ, कैसा हूँ?
मैं कुछ भी नहीं समझा साईं
मेरी रात तो थी तारीक बहुत
मेरा दिन बे-नूर हुआ साईं
था छेद प्याले के अंदर
नहीं आँख में अश्क बचा साईं
वही तश्ना-लबी, वही खस्ता-तनी
मेरा हाल नहीं बदला साईं
गुम-कर्दा राह मुसाफ़िर हूँ
मुझे कोई राह दिखा साईं
मेरे दिल में नूर ज़हूर करे
मेरे मन में दीया जला साईं
मेरी झोली में फल-फूल गिरें
कोई शाख़े-सब्ज़ हिला साईं
मेरे तन का सहरा महक उठे
मेरी रेत में फूल उगा साईं
मुझे लफ़्ज़ों की ख़ैरात मिले
मेरा हो मज़मून जुदा साईं
मेरे दिल में तेरा दर्द रहे
हो जाए दिल दरिया साईं
कोई नहीं फ़क़ीर मेरे जैसा
कहाँ दहर में तुझ जैसा साईं
मेरी आँख में एक सितारा हो
मेरे हाथ में गुल-दस्ता साईं
तेरी जानिब बढ़ता जाऊँ मैं
और ख़त्म न हो रस्ता साईं
तेरे फूल महकते रहें सदा
तेरा जलता रहे दीया साईं
अब बात जब तसव्वुफ़ की चली है तो एक सूफ़ी कलाम सुनिए । ऐसे कलाम पर हज़ारों दीवान न्यौछावर, हज़ारों अशआर कुर्बान। इसे गाया है सूफ़ी गायक हंस राज हंस ने, जिसकी आवाज़ सुनते ही फ़क़ीरों की सोहबत का सा अहसास होता है-
Friday, January 8, 2010
डा० मधुभूषण शर्मा ‘मधुर’ की ग़ज़लें
1 अप्रैल 1951 में पंजाब में जन्मे डा० मधुभूषण शर्मा ‘मधुर’ अँग्रेज़ी साहित्य में डाक्टरेट हैं. बहुत ख़ूबसूरत आवाज़ के धनी ‘मधुर’ अपने ख़ूबसूरत कलाम के साथ श्रोताओं तक अपनी बात पहुँचाने का हुनर बाख़ूबी जानते हैं.इनका पहला ग़ज़ल संकलन जल्द ही पाठकों तक पहुँचने वाला है.आप आजकल डी०ए०वी० महविद्यालय कांगड़ा में अँग्रेज़ी विभाग के अध्यक्ष हैं.
"आज की ग़ज़ल" के पाठकों के लिए प्रस्तुत हैं इनकी 4 ग़ज़लें
एक
दूर के चर्चे न कर तू पास ही की बात कर
अपना घर तू देख पहले फिर किसी की बात कर
आ बता देता हूँ मैं,क्या चीज़ है ज़िंदादिली
मौत के साये तले तू ज़िंदगी की बात कर
तू ख़ुदा को पा चुका है मान लेता हूँ मगर
मैं तो ठहरा आदमी तू आदमी की बात कर
गुम न कर इन मंदिरों और मस्जिदों में तू वजूद
इन अँधेरों से निकलकर रौशनी की बात कर
ख़ुद-ब-ख़ुद लगने लगेगा ख़ुशनुमा तुझको जहान
हो पराई या कि अपनी तू ख़ुशी की बात कर
ताज का पत्थर नहीं तू रंग फीका क्यों पड़े
बात उल्फ़त की चले तो मुफ़लिसी की बात कर
जब कभी भी बात अपनी हो तुझे करनी ‘मधुर’
दश्त में चलते हुए इक अजनबी की बात कर
बहरे-रमल(मुज़ाहिफ़ शक्ल):
फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलुन
2122 2122 2122 212
दो
इक बार क्या मिले हैं किसी रोशनी से हम
फिर माँगते चिराग़ रहे ज़िन्दगी से हम
कुछ है कि निभ रहे हैं अभी ज़िन्दगी से हम
वर्ना क़रीब मौत के तो हैं कभी से हम
क़तरे तमाम धूप के पीता रहा बदन
तब रू-ब-रू हुए हैं कहीं चाँदनी से हम
जो रुख़ बदलने के लिए कोई वजह नहीं
कह दो कि पेश आ रहे हैं बेरुख़ी से हम
बस रंज है तो है यही ,हैं सब को जानते
कह सकते भी नहीं हैं मगर ये किसी से हम
बहरे-मज़ारे(मुज़ाहिफ़ शक़्ल)
मफ़ऊल फ़ाइलात मुफ़ाईल फ़ाइलुन
221 2121 1221 2 12
तीन
सियासत की जो भी ज़बाँ जानता है
बदलना वो अपना बयाँ जानता है
है ग़र्ज़ अपनी-अपनी ही पहचान सबकी
कि कोई किसी को कहाँ जानता है
हैं अंगार लब और लफ़्ज़ उसके शोले
महब्बत की जो दास्ताँ जानता है
दिलों की है बस्ती फ़क़त अपनी मस्ती
जहाँ के ठिकाने जहाँ जानता है
चलो हम ज़मीं के करें ख़्वाब पूरे
हक़ीक़त तो बस आसमाँ जानता है
मुत़कारिब-चार फ़ऊलुन (122x4)
मसम्मन सालिम
चार
ख़ता है वफ़ा तो सज़ा दीजिए
वगर्ना वफ़ा को वफ़ा दीजिए
नहीं आपको भूल सकता कभी
किसी और को ये सज़ा दीजिए
मुसाफ़िर हूँ मैं आप मंज़िल मेरी
कोई रास्ता तो दिखा दीजिए
है अब जीना-मरना लिए आपके
जो भी फ़ैसला है सुना दीजिए
लिखे हर्फ़ दिल पे मिटेंगे नहीं
मेरे ख़त भले ही जला दीजिए
सताए हुए दिल के सपने-सा हूँ
निगाहों से अपनी शफ़ा दीजिए
बहरे-मुतका़रिब( मुज़ाहिफ़ शक्ल)
फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊ
122 122 122 12
संपर्क-
दूरभाष:01892-265558,
मोबाइल :9816275575
Wednesday, January 6, 2010
एक ज़मीन में दो शायर
एक ज़मीन में दो शायरों की बराबर के मेयार की ग़ज़लें बड़ी मुशकिल से मिलती हैं। ये दोनों ग़ज़लें एक ही ज़मीन में हैं लेकिन दोनों बेमिसाल और लाजवाब हैं। पढ़िए, सुनिए और लुत्फ़ लीजिए-
पहली ग़ज़ल जनाब- अहमद नदीम कासमी की -
ग़ज़ल
कौन कहता है कि मौत आयी तो मर जाऊँगा
मैं तो दरिया हूँ समन्दर में उतर जाऊँगा
तेरा दर छोड़ के मैं और किधर जाऊँगा
घर में घिर जाऊँगा सहरा में बिखर जाऊँगा
तेरे पहलू से जो उट्ठूंगा तो मुश्किल ये है
सिर्फ़ इक शख्स को पाऊंगा जिधर जाऊँगा
अब तेरे शहर में आऊँगा मुसाफ़िर की तरह
साया-ए-अब्र की मानिंद गुज़र जाऊँगा
तेरा पैमाने-वफ़ा राह की दीवार बना
वरना सोचा था कि जब चाहूँगा मर जाऊँगा
चारासाज़ों से अलग है मेरा मेयार कि मैं
ज़ख्म खाऊँगा तो कुछ और सँवर जाऊँगा
अब तो खुर्शीद को डूबे हुए सदियां गुज़रीं
अब उसे ढ़ूंढने मैं ता-बा-सहर जाऊँगा
ज़िन्दगी शमअ की मानिंद जलाता हूं ‘नदीम’
बुझ तो जाऊँगा मगर, सुबह तो कर जाऊँगा
और दूसरी ग़ज़ल है जनाब मुईन नज़र की -
इतना टूटा हूँ कि छूने से बिखर जाऊँगा
अब अगर और दुआ दोगे तो मर जाऊँगा
हर तरफ़ धुँध है, जुगनू , न चरागां कोई
कौन पहचानेगा बस्ती में अगर जाऊँगा
फूल रह जाएंगे गुलदानों में यादों की नज़र
मैं तो ख़ुशबू हूँ फ़ज़ाओं में बिखर जाऊँगा
पूछकर मेरा पता वक़्त राएगाँ न करो
मैं तो बंजारा हूँ क्या जाने किधर जाऊँगा
ज़िंदगी मैं भी मुसाफ़िर हूँ तेरी कश्ती का
तू जहाँ मुझसे कहेगी मैं उतर जाऊँगा
दोनों ग़ज़लें रमल की मुज़ाहिफ़ शक़्ल में हैं-
फ़ाइलातुन फ़'इ'लातुन फ़'इ'लातुन फ़ालुन
2122 1122 1122 22 / 112
अब सुनिए गु़लाम अली की आवाज़ में मुईन नज़र की ये खूबसूरत ग़ज़ल-
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Saturday, January 2, 2010
स्वर्गीय लाल चन्द प्रार्थी - परिचय और ग़ज़लें
(3 अप्रैल, 1915 -11 दिसम्बर, 1982)
स्वर्गीय लाल चन्द प्रार्थी ‘चाँद’ कुल्लुवी हिमाचल के आसमाने-सियासत और अदबी उफ़ुक़ के दरख़्शाँ चाँद थे. आप हिमाचल के नग्गर (कुल्लू) गाँव से थे. इनका कलाम बीसवीं सदी, शमअ और शायर जैसी देश की चोटी की उर्दू पत्रिकाओं में स्थान पाता था.कुल-हिन्द और हिन्द -पाक मुशायरों में भी इनके कलाम का जादू सुनने वालों के सर चढ़ कर बोलता था. आपने हिमाचल सरकार के कई मंत्री पदों को भी सुशोभित किया था. प्रस्तुत ग़ज़लें उनके मरणोपरान्त हिमाचल भाषा एवं कला संस्कृति विभाग द्वारा प्रकाशित संकलन ‘वजूद-ओ-अदम’से ली गई हैं . आज की ग़ज़ल के लिए इनका उर्दू से लिप्यान्तरण ‘द्विज’ जी ने किया है.
‘चाँद’ कुल्लुवी साहब की तीन ग़ज़लें-
एक
हर आस्ताँ पे अपनी जबीने-वफ़ा न रख
दिल एक आईना है इसे जा-ब-जा न रख
रख तू किसी के दर पे जबीं अपनी या न रख
दिल से मगर ख़ुदा का तसव्वुर जुदा न रख
अफ़सोस हमनवाई के मआनी बदल गए
मैंने कहा था साथ कोई हमनवा न रख
मंज़िल ही उसकी आह की आतिश से जल न जाए
हमराह कारवाँ के कोई दिलजला न रख
घर अपना जानकर हैं मकीं तेरे दिल में हम
हम ग़ैर तो नहीं हैं हमें ग़ैर-सा न रख
होता तो होगा ज़िक्र मेरा भी बहार में
मुझसे छुपा के बात कोई ऐ सबा न रख
आवाज़ दे कहीं से तू ऐ मंज़िले-मुराद
इन दिलजलों को और सफ़र-आशना न रख
वुसअत में इसकी कोनो-मकाँ को समेट ले
महदूद अपने ख़ाना-ए-दिल की फ़िज़ा न रख
अच्छा है साथ-साथ चले ज़िंदगी के तू
ऐ ख़ुदफ़रेब इससे कोई फ़ासला न रख
राहे-वफ़ा में तेरी भी मजबूरियाँ सही
इतना बहुत है दिल से मुझे तू जुदा न रख
रौशन हो जिसकी राहे-अदम तेरी याद में
उस ख़स्ता-तन की क़ब्र पे जलता दिया न रख
ऐ चाँद आरज़ूओं की तकमील हो चुकी
रुख़सत के वक़्त दिल में कोई मुद्दआ न रख
बहरे-मज़ारे की मुज़ाहिफ़ शक़्ल-
मफ़ऊल फ़ाइलात मुफ़ाईल फ़ाइलुन
221 2121 1221 212
दो
ख़ुशी की बात मुक़द्दर से दूर है बाबा
कहीं निज़ाम में कोई फ़तूर है बाबा
जो सो रहा है लिपट कर अना के दामन से
जगा के देख ये मेरा शऊर है बाबा
घटाएँ पी के भी सहरा की प्यास रखता हूँ
न जाने प्यास में कैसा सरूर है बाबा
भरी बहार में बैठे हैं हम अलम-व किनार
ज़रा बता कि ये किसका क़सूर है बाबा
तेरी निगाह में जो एक जल्वा देख लिया
मेरे लिए वही असरारे-तूर है बाबा
मये-निशात में देखा है झूमकर बरसों
मये-अलम में भी अब तो सरूर है बाबा
गुमान सुबहे-बदन है यक़ीन शामे-नज़र
ढला हुआ तेरे सांचे में नूर है बाबा
कभी कोई तो उसे जोड़ पाएगा शायद
अभी तो शीशा-ए-दिल चूर-चूर है बाबा
नमूदे-नौ में तेरे ही तस्व्वुराते-हसीं
तेरा ख़याल बिना-ए-शऊर है बाबा
मेरा वजूद तेरे शौक़ का नतीजा है
इसी लिए तो ये साए से दूर है बाबा
छुपा-छुपा के मैं रक्खूँ कहाँ इसे ऐ ‘चाँद’
मताए-ज़ीस्त ये तेरे हुज़ूर है बाबा
बहरे-मजतस की मुज़ाहिफ़ शक्ल:
म'फ़ा'इ'लुन फ़'इ'लातुन म'फ़ा'इ'लुन फ़ा'लुन
1212 1122 1212 22/112
तीन
फ़रेबे-ज़िंदगी है और मैं हूँ
बला की बेबसी है और मैं हूँ
वही संजीदगी है और मैं हूँ
वही शोरीदगी है और मैं हूँ
जहाँ मैं हूँ वहाँ कोई नहीं है
मेरी आवारगी है और मैं हूँ
बढ़ा जाता हूँ ख़ुद राहे-अदम पर
तुम्हारी रौशनी है और मैं हूँ
जनाज़ा उठ चुका है दिलबरी का
शिकस्ते-आशिक़ी है और मैं हूँ
तमाशाई हूँ अपनी हसरतों का
किसी की बेरुख़ी है और मैं हूँ
निगाहों में उधर बेबाकियाँ हैं
इधर शर्मिंदगी है और मैं हूँ
वहाँ ढूँढो मुझे ऐ ‘चाँद’ जाकर
जहाँ बस आगही है और मैं हूँ
हज़ज की मुज़ाहिफ़ शक़्ल
मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन फ़ऊलुन
1222 1222 122.
Friday, January 1, 2010
नव वर्ष पर-विशेष
ले उड़े इस जहाँ से धुआँ और घुटन
इक हवा ज़ाफ़रानी नये साल में
द्विज जी के इस शे’र के साथ इस साल की अंतिम पोस्ट आपकी नज़्र है। वसीम बरेलवी की एक ग़ज़ल आज पहली बार "आज की ग़ज़ल" पर छाया कर रहा हूँ, ग़ज़ल से पहले दो शे’र वसीम बरेलवी के-
न पाने से किसी के है, न कुछ खोने से मतलब है
ये दुनिया है इसे तो कुछ न कुछ होने से मतलब है
गुज़रते वक़्त के पैरों में ज़ंजीरें नहीं पड़तीं
हमारी उम्र को हर लम्हा कम होने से मतलब है
अब ये ग़ज़ल मुलाहिज़ा कीजिए-
कौन सी बात कहाँ , कैसे कही जाती है
ये सलीक़ा हो तो हर बात सुनी जाती है
जैसा चाहा था तुझे देख न पाये दुनिया
दिल में बस एक ये हसरत ही रही जाती है
एक बिगड़ी हुई औलाद भला क्या जाने
कैसे माँ-बाप के होंटों से हँसी जाती है
कर्ज़ का बोझ उठाये हुए चलने का अज़ाब
जैसे सर पर कोई दीवार गिरी जाती है
अपनी पहचान मिटा देना हो जैसे सब कुछ
जो नदी है वो समंदर से मिली जाती है
पूछना है तो ग़ज़ल वालों से पूछो जाकर
कैसे हर बात सलीक़े से कही जाती है
रमल की मुज़ाहिफ़ शक़्ल -
फ़ाइलातुन फ़'इ'लातुन फ़'इ'लातुन फ़ालुन
2122 1122 1122 22 / 112
निदा फ़ाज़ली की इस दुआ के साथ-
"चिड़ियों को दाने, बच्चों को गुड़धानी दे मौला"
इस साल को विदा कहते हैं और आने वाले साल का स्वागत करते हैं । जगजीत की मख़मली आवाज़ में इसे सुनिए-
Jagjit Singh - Garaj Baras Pyasi .mp3 | ||
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Wednesday, December 23, 2009
कृश्न कुमार 'तूर' साहिब की दो ग़ज़लें
11 अक्तूबर 1933 को जन्मे जनाब—ए—कृश्न कुमार 'तूर' साहब ने उर्दू , अँग्रेज़ी और इतिहास जैसे तीन विषयों में एम.ए. किया है.आप हिमाचल प्रदेश के टूरिज़म विभाग में उच्च अधिकारी रह चुके हैं.आपका का क़लाम उर्दू जगत में प्रकाशित होने वाली लगभग सभी पत्रिकाओं में बड़े आदर से छपता है.भारत में आयोजित तमाम कुल—हिन्द और हिन्द—पाक मुशायरों में इन्हें बड़े अदब से सुना जाता है.
इनकी प्रसिद्ध किताबें हैं - आलम ऐन ; मुश्क—मुनव्वर; शेर शगुफ़्त ; रफ़्ता रम्ज़ ; सरनामा—ए—गुमाँ नज़री .'तूर' साहब अर्से से उर्दू में प्रकाशित सर सब्ज़ पत्रिका के सम्पादक हैं.पेश हैं इनकी तीन ग़ज़लें-
एक
मैं मंज़र हूँ *पस मंज़र से मेरा रिश्ता बहुत
आख़िर मेरी पेशानी पे सूरज चमका बहुत
जाने कौन से *इस्मे-अना के हम *ज़िन्दानी थे
तेरे नाम को लेकर हमने ख़ुद को चाहा बहुत
उनसे क्या रिश्ता था वो क्या मेरे लगते थे
गिरने लगे जब पेड़ से पत्ते तो मैं रोया बहुत
कैसी *मसाफ़त सामने थी और सफ़र था कैसा लहू
मैंने उसको उसने मुझको मुड़ के देखा बहुत
है दरिया के *लम्स पे नाज़ाँ इक काग़ज़ की नाव
सूरज से बातें करता है एक दरीचा बहुत
सारी उम्र किसी की ख़ातिर सूली पे लटका
शायद 'तूर' मेरे अन्दर इक शख़्स था ज़िन्दा बहुत
(6फ़ेलुन+1फ़े)
पस मंज़र=पृष्ठभूमि,*इस्मे-अना -अहम का नाम,ज़िन्दानी -कै़दी,मसाफ़त-सफ़र की दूरी,लम्स-स्पर्श
दो
अब सामने लाएँ आईना क्या
हम ख़ुद को दिखाएँ आईना क्या
ये दिल है इसे तो टूटना था
दुनिया से बचाएँ आईना क्या
इस में जो अक्स है ख़बर है
अब देखें दिखाएँ आईना क्या
क्या *दहर को *इज़ने-आगही दें
पत्थर को दिखाएँ आईना क्या
उस *रश्क़े-क़मर से वस्ल रक्खें
पहलू में सुलाएँ आईना क्या
हम भी तो मिसाले-आईना हैं
अब ‘तूर’ हटाएँ आईना क्या
रश्क़े-क़मर - चाँद से हसीन,*दहर -दुनिया,इज़्न-इजाज़त,आगही-जानकारी
बहरे-हज़ज की मुज़ाहिफ़ शक्ल
मफ़ऊलुन फ़ाइलुन फ़ऊलुन
222 212 122 या 2211 212 122
तीन
तेरे फ़िराक़ में जितनी भी अश्कबारी की
मिसाले-ताज़ा रही वो दिले-हज़ारी की
था कुछ ज़माने का बर्ताव भी *सितम आमेज़
थी लौ भी तेज़ कुछ अपनी अना-ख़ुमारी की
ये किसके नाम का अब गूँजता है अनहदनाद
ये कौन जिसने मेरे दिल पे मीनाकारी की
कभी-कभी ही हुई मेरी फ़स्ले-जाँ सर सब्ज़
कभी कभी ही मेरे इश्क़ ने पुकारी की
अगर वो सामने आए तो उससे पूछूँ मैं
ये किस की फ़र्दे-अमल मेरे नाम जारी की
सदा-ए-दर्द पड़ी भी तो बहरे कानों में
हमारे दिल ने अगर्चे बहुत पुकारी की
जो हम ज़माने में बरबाद हो गए हैं तो क्या
सज़ा तो मिलनी थी आख़िर ख़ुद अख़्तियारी की
जिसे न पासे महब्बत न दोस्ती का लिहाज़
ये ‘तूर’ तुमने भी किस बेवफ़ा से यारी की
*सितम आमेज़- जुल्म से भरा हुआ,अना-ख़ुमारी -अहम का नशा, अश्कबारी-आँसुओं की बरसात
बहरे-मजतस की मुज़ाहिफ़ शक्ल
म'फ़ा'इ'लुन फ़'इ'लातुन म'फ़ा'इ'लुन फ़ा'लुन
1212 1122 1212 22/ 112सम्पर्क:134—E,Khaniyara Road,
Dharmshala—176215 (Himachal Pradesh)
फोन: 01892—222932 ; मोबाइल: 098160—20854
Saturday, December 19, 2009
संजीव गौतम की दो ग़ज़लें
इस बार कुछ देरी से ये पोस्ट लगा रहा हूँ लेकिन अब कोशिश करूँगा कि आपको अच्छी ग़ज़लें पढ़वाता रहूँ। इस बार 1973 में जन्में संजीव गौतम की दो ग़ज़लें हाज़िर कर रहा हूँ। इन्होंने हिंदी मे एम.ए. की है और पत्र-पत्रिकाओं में अक्सर छपते रहते हैं। आशा है कि आपको ग़ज़लें पसंद आयेंगी।
ग़ज़ल
कभी तो दर्ज़ होगी जुर्म की तहरीर थानों में
कभी तो रौशनी होगी हमारे भी मकानों में
कभी तो नाप लेंगे दूरियाँ ये आसमानों की
परिंदों का यक़ीं क़ायम तो रहने दो उड़ानों में
अजब हैं माअनी इस दौर की गूँगी तरक़्क़ी के
मशीनी लोग ढाले जा रहे हैं कारख़ानों में
कहें कैसे कि अच्छे लोग मिलना हो गया मुश्किल
मिला करते हैं हीरे कोयलों की ही खदानों में
भले ही है समय बाक़ी बग़ावत में अभी लेकिन
असर होने लगा है चीख़ने का बेज़ुबानों में
नज़र-अंदाज़ ये दुनिया करेगी कब तलक हमको
हमारा भी कभी तो ज़िक्र होगा दास्तानों में
(बहरे-हज़ज सालिम)
मुफ़ाईलुनx4
ग़ज़ल
बंद रहती हैं खिड़कियाँ अब तो
घर में रहती हैं चुप्पियाँ अब तो
हमने दुनिया से दोस्ती कर ली
हमसे रूठी हैं नेकियाँ अब तो
उफ़! ये कितना डरावना मंज़र
बोझ लगती हैं बेटियाँ अब तो
खो गये प्यार, दोस्ती-रिश्ते
रह गयी हैं कहानियाँ अब तो
सिर्फ़् अपने दुखों को जाने हैं
ये सियासत की कुर्सियाँ अब तो
सबकी आँखों में सिर्फ़ ग़ुस्सा है
और हाथों में तख़्तियाँ अब तो
बहरे-खफ़ीफ़
फ़ाइलातुन मुफ़ाइलुन फ़ा’लुन
( 2122 1212 22/112 )
Saturday, November 21, 2009
तरही की अंतिम क़िस्त
मिसरा-ए-तरह "तुझे ऐ ज़िंदगी , हम दूर से पहचान लेते हैं" पर अंतिम दो ग़ज़लें
कुमार ज़ाहिद
वो जो दिल ही नहीं लेते हैं अक्सर जान लेते हैं
उन्हें हम बारहा दिल से दिलो-जां मान लेते हैं
ये गुल, गुलशन,ये शहरों की हंसीं रंगीनियां सारी
ये चादर नींद में ख्वाबों की है हम तान लेते हैं
कभी खुलकर नहीं रोती,कभी शिकवा नहीं करती
तुझे ऐ ज़िन्दगी हम दूर से पहचान लेते हैं
किसे मंज़िल नहीं मिलती, किसे रस्ता नहीं मिलता
सुना है मिलता है सब कुछ अगर हम ठान लेते हैं
सतपाल ख़याल
हम आँखें देखकर हर शख़्स को पहचान लेते हैं
बिना जाने ही अकसर हम बहुत कुछ जान लेते हैं
वही उतरा हुआ चहरा, वही कुछ सोचती आँखें
तुझ ऐ ज़िंदगी हम दूर से पहचान लेते हैं
ज़रा सा सर उठाता है खुशी का जब कोई अंकुर
घने बरगद ग़मों के इसपे सीना तान लेते हैं
बज़ुर्गों की किसी भी बात का गुस्सा नहीं करते
कि हम हर हाल में अपनी ही ग़लती मान लेते हैं
ज़रूरी तो नहीं हर काम का हासिल हो दुनिया में
तेरी गलियों की अक़सर खाक भी हम छान लेते हैं
ये जलवे हुस्न के का़तिल ख़याल इनसे बचे रहना
ये दिल लेते हैं पहले और फिर ये जान लेते हैं
Monday, November 16, 2009
पाँचवीं क़िस्त
मिसरा-ए-तरह "तुझे ऐ ज़िंदगी , हम दूर से पहचान लेते हैं" पर अगली दो ग़ज़लें
तिलक राज कपूर 'राही' ग्वालियरी
दिखा कर ख़ौफ़ दुनिया के जो हमसे दान लेते हैं
मना कर दें अगर हम तो भवें वो तान लेते हैं
तआरुफ़ मांगते होंगे नये कुछ लोग मिलने पर
तुझे ऐ ज़िन्दगी हम दूर से पहचान लेते हैं
यहाँ सीधी या सच्ची बात सुनता कौन है लेकिन
मसालेदार खबरें लोग कानों-कान लेते हैं
हमारे घर हैं मिट्टी के मगर पत्थर की कोठी पर
अगर हम जोश में आयें तो मुट्ठी तान लेते हैं
हजारों इम्तिहां हम दे चुके पर देखना है ये
नया इक इम्तिहां अब कौन सा भगवान लेते हैं
ये पटियेबाज भोपाली भला कब नापकर फेंकें
यकीं हमको नहीं होता मगर हम मान लेते हैं
तबीयत और फितरत कुछ अलग ‘राही’ने पाई है
वो अपने काम के बदले बस इक मुस्कान लेते हैं
तेजेन्द्र शर्मा
बिना पूछे तुम्हारे दिल की बातें जान लेते हैं
खड़क पत्तों की होती है तुम्हें पहचान लेते हैं
भला सीने में मेरे दिल तुम्हारा क्यूं धड़कता है
यही बस सोच कर हम अपना सीना तान लेते हैं
अलग संसार है तेरा, अलग दुनियां में रहता मैं
मेरी दुनियां में तेरा नाम सब अनजान लेते हैं
कभी मुश्किल हमारा रास्ता कब रोक पाई है
वो मंज़िल मिल ही जाती है जिसे हम ठान लेते हैं
चौथी क़िस्त
मिसरा-ए-तरह "तुझे ऐ ज़िंदगी , हम दूर से पहचान लेते हैं" पर अगली दो ग़ज़लें
प्रेमचंद सहजवाला
सफ़र मंज़िल का मुश्किल है क़दम ये जान लेते हैं
तुझे ऐ जिंदगी हम दूर से पहचान लेते हैं
ग़ज़ल कहना तो आला शाइरों का काम होता है
मगर नादाँ इसे कहना समझ आसान लेते हैं
चुनावों में तो रौनक़ सी नज़र आती है हर जानिब
हमारे गाँव में डाकू भी मूंछें तान लेते हैं
हमें तहज़ीब का रस्ता वो लाठी से सिखाते हैं
मगर हम लोग उन की असलियत को जान लेते हैं
अगरचे आप फ़ितरत से ही तानाशाह लगते हैं
कहा हम आप का फिर भी हमेशा मान लेते हैं
जवानों की न हिम्मत पर कभी हैरान हो साथी
वही करते हैं वो जांबाज़ जो कुछ ठान लेते हैं
शाहिद मिर्ज़ा शाहिद
बुज़ुर्गों के तजुर्बे का कहां अहसान लेते हैं
वही करते हैं बच्चे दिल में जो भी ठान लेते हैं.
हमारी कश्तियाँ हैं सब की सब सागर की हमजोली
हमारे *अज़्म से टक्कर कहां तूफान लेते हैं
महक जाती हैं ये सांसें तेरे आने की आहट से
तुझे ऐ जिन्दगी हम दूर से पहचान लेते हैं
मुहब्बत की अदालत में दलीलें चल नहीं पातीं
वो खु़द को बावफ़ा कहते हैं तो हम मान लेते हैं
हमारी गु़फ्तगू में एक ये मुश्किल तो है 'शाहिद'
ग़ज़ल के वास्ते अल्फाज़ भी आसान लेते हैं
*अज्म-दृढ़ प्रतिज्ञा, मज़बूत इरादा
Saturday, November 14, 2009
तरही की तीसरी क़िस्त
मिसरा-ए-तरह "तुझे ऐ ज़िंदगी , हम दूर से पहचान लेते हैं" पर अगली दो ग़ज़लें
गौतम राजरिषी
हमारे हौसलों को ठीक से जब जान लेते हैं
अलग ही रास्ते फिर आँधी औ’तूफ़ान लेते हैं
लबादा कोई ओढ़े तू मगर हम जान लेते हैं
तुझे ऐ जिंदगी हम दूर से पहचान लेते हैं
बहुत है नाज़ रुतबे पर उन्हें अपने, चलो माना
कहाँ हम भी किसी मग़रूर का अहसान लेते हैं
तपिश में धूप की बरसों पिघलते हैं ये परबत जब
जरा फिर लुत्फ़ नदियों का ये तब मैदान लेते हैं
हुआ बेटा बड़ा हाक़िम, भला उसको बताना क्या
कि करवट बाप के सीने में कुछ अरमान लेते हैं
हो बीती उम्र शोलों पर ही चलते-दौड़ते जिनकी
कदम उनके कहाँ फिर रास्ते आसान लेते हैं
इशारा वो करें बेशक उधर हल्का-सा भी कोई
इधर हम तो खुदा का ही समझ फ़रमान लेते हैं
है ढ़लती शाम जब तो पूछता है दिन थका-सा रोज
सितारे डूबते सूरज से क्या सामान लेते हैं?
पूर्णिमा वर्मन
मुसीबत में किसी का हम नहीं अहसान लेते हैं
ग़मों की छाँह में खुशियों की चादर तान लेते हैं
कभी बारूद से उड़ जायगी सोचा नहीं करते
परिंदे प्यार से दीवार को घर मान लेते हैं
दया, ईमान, सच, इख़्लाक़ ,सब कुछ बेज़रूरत हैं
घरों में लोग तो बस शौक़ के सामान लेते हैं
कभी खुशियों की बौछारें,कभी बरसात अश्कों की
तुझे ऐ ज़िंदगी हम दूर से पहचान लेते हैं
भले ही दूर हो मंज़िल मगर मिल जाएगी इक दिन
यही बस सोचकर आगे को चलना ठान लेते हैं
Friday, November 13, 2009
तरही की दूसरी क़िस्त
मिसरा-ए-तरह "तुझे ऐ ज़िंदगी , हम दूर से पहचान लेते हैं" पर अगली दो ग़ज़लें
गिरीश पंकज
मुहब्बत में ग़लत को भी सही जब मान लेते हैं
वो कितना प्यार करते हैं इसे हम जान लेते हैं
मैं आशिक हूँ, दीवाना हूँ, न जाने और क्या-क्या हूँ
मुझे अब शहर वाले आजकल पहचान लेते हैं
अचानक खुशबुओं का एक झोंका-सा चला आये
बहुत पहले से उन कदमों की आहट जान लेते हैं
मुझे जब खोजना होता है तो बेफिक्र हो कर के
मेरे सब यार मयखानों के दर को छान लेते हैं
मुझे दुनिया की दौलत से नहीं है वास्ता कुछ भी
है जितना पैर अपना उतनी चादर तान लेते हैं
कोई भी काम नामुमकिन नहीं होता यहाँ पंकज
वो सब हो जाता है पूरा अगर हम ठान लेते हैं
चंद्रभान भारद्वाज
हवा का जानकर रूख हम तेरा रूख जान लेते हैं
तुझे ऐ ज़िन्दगी हम दूर से पहचान लेते है
हमारी बात का विश्वास क्यों होता नहीं तुझको
कभी हम हाथ में गीता कभी कुरआन लेते हैं
जरूरत जब कभी महसूस करते तेरे साये की
तेरी यादों का आँचल अपने ऊपर तान लेते हैं
उदासी से घिरा चेहरा तेरा अच्छा नहीं लगता
तुझे खुश देखने को बात तेरी मान लेते हैं
न कोई जान लेते हैं न लेते माल ही कोई
फकत वे आदमी का आजकल ईमान लेते हैं
हज़ारों बार आई द्वार तक हर बार लौटा दी
बचाने ज़िन्दगी को मौत का अहसान लेते हैं
सिमट आता है यह आकाश अपने आप मुट्ठी में
जहाँ भी पंख 'भारद्वाज' उड़ना ठान लेते हैं
Wednesday, November 11, 2009
तरही की तीसरी क़िस्त
मिसरा-ए-तरह "तुझे ऐ ज़िंदगी , हम दूर से पहचान लेते हैं" पर अगली दो ग़ज़लें
गौतम राजरिषी
हमारे हौसलों को ठीक से जब जान लेते हैं
अलग ही रास्ते फिर आँधी औ’तूफ़ान लेते हैं
लबादा कोई ओढ़े तू मगर हम जान लेते हैं
तुझे ऐ जिंदगी हम दूर से पहचान लेते हैं
बहुत है नाज़ रुतबे पर उन्हें अपने, चलो माना
कहाँ हम भी किसी मग़रूर का अहसान लेते हैं
तपिश में धूप की बरसों पिघलते हैं ये पर्वत जब
जरा फिर लुत्फ़ नदियों का ये तब मैदान लेते हैं
हुआ बेटा बड़ा हाक़िम, भला उसको बताना क्या
कि करवट बाप के सीने में कुछ अरमान लेते हैं
हो बीती उम्र शोलों पर ही चलते-दौड़ते जिनकी
कदम उनके कहाँ फिर रास्ते आसान लेते हैं
इशारा वो करें बेशक उधर हल्का-सा भी कोई
इधर हम तो खुदा का ही समझ फ़रमान लेते हैं
है ढ़लती शाम जब तो पूछता है दिन थका-सा रोज
सितारे डूबते सूरज से क्या सामान लेते हैं?
मुसीबत में किसी का हम नहीं अहसान लेते हैं
ग़मों की छाँह में खुशियों की चादर तान लेते हैं
पूर्णिमा वर्मन
कभी बारूद से उड़ जायगी सोचा नहीं करते
परिंदे प्यार से दीवार को घर मान लेते हैं
दया, ईमान, सच, इखलाक़ सब कुछ बेज़रूरत हैं
घरों में लोग तो बस शौक के सामान लेते हैं
कभी खुशियों की बौछारे,कभी बरसात अश्कों की
तुझे ऐ ज़िंदगी हम दूर से पहचान लेते हैं
भले ही दूर हो मंजिल मगर मिल जाएगी इक दिन
यही बस सोचकर आगे को चलना ठान लेते हैं
Monday, November 9, 2009
तरही की पहली क़िस्त
मिसरा-ए-तरह "तुझे ऐ ज़िंदगी , हम दूर से पहचान लेते हैं" पर पहली दो ग़ज़लें
डा.अहमद अली बर्क़ी आज़मी
वे कैसे हैं, कहाँ हैं,हम यह फौरन जान लेते हैं
कभी भी नामाबर का हम नहीं अहसान लेते हैं
बहुत नाज़ुक है उसका शीशा-ए-दिल टूट जाएगा
वो जो कहता है अकसर इस लिए हम मान लेते हैं
मसल मशहूर है यह दिल को दिल से राह होती है
तुझे ऐ ज़िंदगी हम दूर से पहचान लेते हैं
फ़िदा होकर हम उसकी शमे-रुख़ पर मिसले-परवाना
फिर उस से मिल के अपनी मौत का सामान लेते हैं
हदीसे-दिलबरी अफसान-ए-हस्ती की है मज़हर
हक़ीक़ी ज़िंदगी से जिसका हम उनवान लेते हैं
नहीं आती ख़ेरद जब काम अपने ऐसी हालत में
जुनूने-इंतेहा-ए-शौक़ से फरमान लेते हैं
जो हैं इंसानियत के दुशमन ऐ अहमद अली बर्क़ी
वे हैं हैवान जो नौ-ए-बशर की जान लेते हैं
ख़ेरद-अक़्ल,मसल-मुहावरा,मज़हर-निशानी,इज़हार, नौ-ए-बशर-इंसान
डी.के. मुफ़लिस
ख़ुद अपनी राह चलते हैं, ख़ुद अपनी मान लेते हैं
हम अहले-दिल किसी का कब भला अहसान लेते हैं
सुलगती शाम,तन्हाई,ग़मे-दिल,ज़हर का प्याला ,
हम अपने वास्ते यूं जश्न का सामान लेते हैं
मुख़ालिफ़ वक़्त भी उन पर बहुत आसां गुज़रता है
ख़ुदा के हुक्म को जो ख़ुशदिली से मान लेते हैं
उन्हें इक-दुसरे का हर घड़ी अहसास रहता है
जो सच्चे दोस्त हैं वो बिन कहे सब जान लेते हैं
कभी तो रूठ कर मर्ज़ी चला लेते हैं हम अपनी
कभी घबरा के हम ज़िद ज़िंदगी की मान लेते हैं
असर रहता है क़ायम मुस्तक़िल तहरीर में उनकी
सुख़नसाज़ी में फ़िक्र-ओ-फ़न का जो मीज़ान लेते हैं
बदल ले लाख अब 'मुफ़लिस' तू रंगत अपने चेहरे की
तेरे तर्ज़े-बयाँ से सब तुझे पहचान लेते हैं
अहले-दिल=दिल वासी ,मुख़ालिफ़=विरोधी,मुस्तक़िल=हमेशा, स्थायी, तहरीर=लिखावट ,सुख़नसाज़ी=लेखन प्रक्रिया
फिक्रो फ़न=चिंतन और कला,मीज़ान=तराज़ू ,तर्ज़-ए-बयाँ=कथन शैली
छोटी सी सूचना - दोस्तो ! एक छोटी सी सूचना है , मेरी आवाज़ में मेरी कुछ ग़ज़लें और शे’र रिकार्ड हुए हैं और इसे आप urdu-anjuman पर सुन सकते हैं। समय मिले तो ६ मिंन्ट ज़रूर सुनियेगा ये रहा लिंक-
http://www.bazm.urduanjuman.com/index.php?topic=4279.0
धन्यावाद
Tuesday, November 3, 2009
बलवीर राठी की ग़ज़लें और परिचय
उर्दू अदब को जाने बिना ग़ज़ल कहना बैसा ही है जैसे कबीर को पढ़े बिना दोहा लिखना।गा़लिब से परिचित हुए बगैर कोई ग़ज़ल नहीं कह सकता है। खै़र,आज हम ग़ज़लें पेश कर रहे हैं,1934 में हरियाणा में जन्में बलवीर राठी की, जिनके अब तक ३ ग़ज़ल संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं।बज़ुर्ग शायर हैं और बहुत अच्छी ग़ज़लें कहते हैं और हरियाणा साहित्य अकादमी से सम्मान हासिल कर चुके हैं।
एक
गो पुरानी हो चुकी अब होश में आने की बात
लोग फिर भी कर रहे हैं मुझको समझाने की बात
रफ़्ता-रफ़्ता ढल गई है सैंकड़ों नग़मात में
ए दिले-मासूम तेरे एक अफ़साने कि बात
अपना-अपना ग़म लिए फिरते हैं इस दुनिया में लोग
कौन समझेगा यहाँ अब तेरे दीवाने की बात
ज़िंदगी उलझी हुई है और ही जंजाल में
अब कहां वो साग़रो-मीना की, मयखाने की बात
अजनबी माहौल में अपने तो लब खुलते नहीं
तुम ही छेड़ो आज इस रंगीन अफ़साने की बात
(रमल की मुज़ाहिफ़ शक़्ल)
दो
तेज़ लपटों में ढल गया हूँ मैं
कोई सूरज निगल गया हूँ मैं
कितने राहत-फ़िज़ा थे अंगारे
बर्फ लगते ही जल गया हूँ मैं
तुमने बांधा था जिन हदों मे मुझे
उन हदों से निकल गया हूँ मैं
हासिदो ! मेरा ज़ुर्म इतना है
तुमसे आगे निकल गया हूँ मैं
मत बुलंदी की बात कर "राठी"
अब वहां से फिसल गया हूँ मैं
(बहरे-खफ़ीफ़ की मुज़ाहिफ़ शक्ल)
फ़ा’इ’ला’तुन मु’फ़ा’इ’लुन फ़ा’लुन
2122 1212 22
तीन
हमें साथ मिल तो गया था किसी का
मगर मुख़्तसर था सफ़र ज़िंदगी का
कहाँ आ गए हम भटकते-भटकते
यहाँ तो निशां तक नहीं रौशनी का
वफ़ा एक मुद्दत हुई मिट चुकी है
कहाँ नाम लेते हो अब दोस्ती का
अगर साथ होते वो इन रास्तों पर
तो क्या हाल होता मेरी आगही का
मेरे हाल पर मुस्करा कर गए हैं
चलो हक़ अदा हो गया दोस्ती का
बहरे-मुतका़रिब मसम्मन सालिम
(चार फ़ऊलुन )122x4
शायर का पता-
3836 अरबन इस्टेट
जींद- हरियाणा
फोन-01681-247351
Monday, October 26, 2009
गिरीश पंकज-ग़ज़लें और परिचय
1957 में जन्में गिरीश पंकज की अब तक 28 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं और एक ग़ज़ल संग्रह भी जल्द ही प्रकाशित हो रहा है।आप दिल्ली साहित्य अकादमी के सदस्य हैं और सद्भावना दर्पण नामक पत्रिका के संपादक भी हैं। "आज की ग़ज़ल" पर पेश हैं इनकी तीन ग़ज़लें-
एक
मै अँधेरे में उजाला देखता हूँ
भूख में रोटी-निवाला देखता हूँ
आदमी के दर्द की जो दे खबर भी
है कहीं क्या वो रिसाला देखता हूँ
हो गए आजाद तो फिर किसलिए मैं
आदमी के लब पे ताला देखता हूँ
हूँ बहुत प्यासा मगर मैं क्या करूं अब
तृप्त हाथों में ही प्याला देखता हूँ
कोई तो मिल जाए बन्दा नेकदिल सा
ढूंढता मस्जिद, शिवाला देखता हूँ
दो
तुम मिले तो दर्द भी जाता रहा
देर तक फ़िर दिल मेरा गाता रहा
देख कर तुमको लगा हरदम मुझे
जन्मों-जन्मो का कोई नाता रहा
दूर मुझसे हो गया तो क्या हुआ
दिल में उसको हर घड़ी पाता रहा
अब उसे जा कर मिली मंजिल कहीं
जो सदा ही ठोकरे खाता रहा
मुफलिसी के दिन फिरेंगे एक दिन
मै था पागल ख़ुद को समझाता रहा
ज़िन्दगी है ये किराये का मकां
इक गया तो दूसरा आता रहा
तीन
आपकी शुभकामनाएँ साथ हैं
क्या हुआ गर कुछ बलाएँ साथ हैं
हारने का अर्थ यह भी जानिए
जीत की संभावनाएं साथ हैं
इस अँधेरे को फतह कर लेंगे हम
रौशनी की कुछ कथाएँ साथ हैं
मर ही जाता मैं शहर में बच गया
गाँव की शीतल हवाएं साथ हैं
ये सफ़र अंतिम हैं खाली हाथ लोग
पर हजारों वासनाएँ साथ हैं
(बहरे-रमल की मुज़ाहिफ़ शक्लों मे कही गई ग़ज़लें)
शायर का पता-
संपादक, " सद्भावना दर्पण"
जी-३१, नया पंचशील नगर,
रायपुर. छत्तीसगढ़. ४९२००१
मोबाइल : ०९४२५२ १२७२०
Wednesday, October 21, 2009
जतिन्दर परवाज़ की ग़ज़लें और परिचय
1975 में जन्में जतिन्दर "परवाज़" की तीन ग़ज़लें हम पेश कर रहे हैं। "ग़ज़ल दुश्यंत के बाद" भाग-२ में इनकी ग़ज़लें शामिल हैं । युवा शायर हैं और बहुत अच्छे शे’र कहते हैं। आल इंडिया मुशायरों में शिरकत कर चुके हैं। इनसे अदब को बहुत उम्मीदें हैं। इनका ग़ज़ल संग्रह भी जल्द ही आ रहा है।
एक
शजर पर एक ही पत्ता बचा है
हवा की आँख में चुभने लगा है
नदी दम तोड़ बैठी तिशनगी से
समंदर बारिशों में भीगता है
कभी जुगनू कभी तितली के पीछे
मेरा बचपन अभी तक भागता है
सभी के खून में गैरत नही पर
लहू सब की रगों में दोड़ता है
जवानी क्या मेरे बेटे पे आई
मेरी आँखों में आँखे डालता है
चलो हम भी किनारे बैठ जायें
ग़ज़ल ग़ालिब सी दरिया गा रहा है
बहरे-हज़ज की मुज़ाहिफ़ शक्ल
मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन फ़ऊलुन
1222 1222 122.
दो
ख़्वाब देखें थे घर में क्या क्या कुछ
मुश्किलें हैं सफ़र में क्या क्या कुछ
फूल से जिस्म चाँद से चेहरे
तैरता है नज़र में क्या क्या कुछ
तेरी यादें भी अहले-दुनिया भी
हम ने रक्खा है सर में क्या क्या कुछ
ढूढ़ते हैं तो कुछ नहीं मिलता
था हमारे भी घर में क्या क्या कुछ
शाम तक तो नगर सलामत था
हो गया रात भर में क्या क्या कुछ
हम से पूछो न जिंदगी 'परवाज़'
थी हमारी नज़र में क्या क्या कुछ
बहरे-खफ़ीफ़ की मुज़ाहिफ़ शक़्ल
फ़ा’इ’ला’तुन म’फ़ा’इ’लुन फ़ा’लुन
2122 1212 22
तीन
यार पुराने छूट गए तो छूट गए
कांच के बर्तन टूट गए तो टूट गए
सोच समझ कर होंट हिलाने पड़ते हैं
तीर कमाँ से छूट गए तो छूट गए
शहज़ादे के खेल खिलोने थोड़ी थे
मेरे सपने टूट गए तो टूट गए
इस बस्ती में कौन किसी का दुख रोये
भाग किसी के फूट गए तू फूट गए
छोड़ो रोना धोना रिश्ते नातों पर
कच्चे धागे टूट गए तो टूट गए
अब के बिछड़े तो मर जाएंगे 'परवाज़'
हाथ अगर अब छूट गए तो छूट गए
पाँच फ़ेलुन+एक "फ़े"
संपर्क -
गाँव - शाहपुर कंडी ,
तहसील - पठानकोट,पंजाब -145029
मोबाइल- +919868985658
ईमेल -jatinderparwaaz@gmail.com
Saturday, October 17, 2009
दिवाली विशेष
जैसे दिवाली चराग़ों के बिना अधूरी लगती है वैसे ही शायरी भी चरागों के बिना अधूरी है। ऐसा शायद ही कोई शायर हो जिसने चराग़ पर दो-चार शे’र न कहें हों। दिवाली का मौक़ा है , तो सोचा क्यों न चरागों को एक जगह तरतीब से जलाया जाए। शायर जो चराग़ जलाता है वो चराग़ कहीं तो अँधेरा चूसते हैं, कहीं आँधियों से टक्कर लेते हैं, कहीं दमागों को रौशन करते हैं और कहीं तनहाइयों के साथी हैं। आजकल शायर शम्मा कम जलाते हैं लेकिन चराग़ हर जगह रौशन करते हैं। दीपावली की शुभ कामनाओं के साथ मुलाहिज़ा फ़रमांए चरागों पर कहे ये खूबसूरत अशआर-
दिल है गोया चराग किसी मुफलिस का
शाम ही से बुझा सा रहता है..मीर
बू-ए-गुल, नालह-ए-दिल, दूद-ए-चिराग़-ए-मह्फ़िल
जो तिरी बज़्म से निकला सो परेशां निकला..गा़लिब
यह नर्म नर्म हवा झिलमिला रहे हैं चराग़
तेरे ख़्याल की खुश्बू से बस रहे हैं दिमाग़..फ़िराक़
ये चिराग़ बेनज़र है ये सितारा बेज़ुबाँ है
अभी तुझसे मिलता जुलता कोई दूसरा कहाँ है..बशीर बद्र
कहाँ तो तय था चरागां हरेक घर के लिए
कहाँ चराग मय्यसर नहीं शहर के लिए.. दुश्यंत
दिल में दिए जला के अंधेरे में जीना सीख
बुझते हुए चिराग़ का मातम फ़ुज़ूल है..कौसर सद्दीकी
मेरे साथ जुगनू है हमसफ़र मगर इस शरर की बिसात क्या
ये चिराग़ कोई चिराग़ है न जला हुआ न बुझा हुआ..बशीर बद्र
हम चिराग़-ए-शब ही जब ठहरे तो फिर क्या सोचना.
रात थी किस का मुक़द्दर और सहर देखेगा कौन.. अहमद फ़राज़
आज की शब ज़रा ख़ामोश रहें सारे चराग़
आज महफिल में कोई शम्अ फ़रोजां होगी..नुसरत मेंहदी
दुआ करो कि सलामत रहे मेरी हिम्मत
यह इक चिराग़ कई आँधियों पे भारी है..वसीम बरेलवी
ये किस मुक़ाम पे ले आई जुस्तजू तेरी
कोई चिराग़ नहीं और रोशनी है बहुत..किर्श्न बिहारी नूर
जहां रहेगा वहीं रौशनी लुटायेगा
किसी चराग का अपना मकां नहीं होता.. वसीम बरेलवी
कोई फूल बन गया है, कोई चाँद, कोई तारा
जो चिराग़ बुझ गए हैं तेरी अंजुमन में जल के
मेरे मन की अयोध्या में न जाने कब हो दीवाली
अभी तो झलकता है राम का बनवास आँखों में..साग़र पालमपुरी
यही चिराग़ जो रोशन है बुझ भी सकता था
भला हुआ कि हवाओं का सामना न हुआ..महताब हैदर नक़बी
कुछ आज शाम ही से है दिल भी बुझा-बुझा
कुछ शहर के चिराग़ भी मद्धम हैं दोस्तो ..अहमद फ़राज़
हमने हर गाम पे सजदों के जलाये हैं चिराग़
अब तिरी राहगुज़र, राहगुज़र लगती है..जां निसार अख़तर
आईये चराग-ए-दिल आज हीं जलाएँ हम,
कैसी कल हवा चले कोई जानता नहीं
चराग अपने थकान की कोई सफ़ाई न दे
वो तीरगी है के अब ख्वाब तक दिखाई ना दे
अजब चराग हूँ दिन रात जलता रहता हूँ
मैं थक गया हूँ हवा से कहो बुझाए मुझे
मंज़िल न दे चराग न दे हौसला तो दे,
तिनके का ही सही तू मगर आसरा तो दे,.
तूने जलाईं बस्तियाँ ले-ले के मशअलें
अपना चराग़ अपने ही हाथों बुझा के देख.. देवेन्द्र शर्मा 'इन्द्र'
रोशन रहे चराग़ उसी की मज़ार पर
ताज़िन्दगी जो दिल में उजाला लिए जिया..चिराग जैन
हमने उन तुन्द हवाओं में जलाये हैं चिराग़
जिन हवाओं ने उलट दी हैं बिसातें अक्सर..जां निसार अख़तर
अंधेरे जश्न मनाने की भूल करते हैं
चिराग़ अब भी हवाओं पे वार करता है..इसहाक़ असर इन्दौरी
जब भी चूम लेता हूँ उन हसीन आँखों को,
सौ चिराग़ अँधेरे में झिलमिलाने लगते हैं .. कैफ़ी आज़मी
तेरे होते हुए महफ़िल में जलाते हैं चिराग़
लोग क्या सादा हैं सूरज को दिखाते हैं चिराग़
कहाँ से ढूँढ के लाऊं चराग़ से वो बदन
तरस गई हैं निगाहें कंवल-कंवल के लिए
चिराग़ हो कि ना हो, दिल जला के रखते हैं
हम आंधियों में भी तेवर बला के रखते हैं मिला..हसती
कोई दम का मेहमाँ हूँ ऐ अहल-ए-महफ़िल
चिराग़-ए-सहर हूँ, बुझा चाहता हूँ ...इकबाल
इस एक ज़ौम में जलते हैं ताबदार चराग़
हवा के होश उड़ाएँगे बार - बार चराग़...बुनियाद हुसैन ज़हीन
उदास उदास शाम में धुआं धुआं चराग हैं
हमें तेरे ख्याल में मिली फकत चुभन चुभन ..मरयम गजाला
अब चराग ढूँढता हूँ के थोड़ी रौशनी मिले
अँधेरे में खो गया इक जरूरी सवाल मियाँ
हवाओं को थाम लो ये फुर्क़त की शाम है
आहिस्ता साँस लो कि अब बुझता चराग है
चराग अपने थकान की कोई सफ़ाई न दे
वो तीरगी है के अब ख्वाब तक दिखाई ना दे
चराग़-ओ-आफ़्ताब ग़ुम, बड़ी हसीन रात थी
शबाब की नक़ाब ग़ुम, बड़ी हसीन रात थी
हरेक मठ में जला फिर दिया दिवाली का,
हरेक तरफ़ को उजाला हुआ दिवाली का
अजब बहार का है दिन बना दिवाली का..नज़ीर
तेरी हर चाप से जलते हैं ख़यालों मे चराग
जब भी तू आए जगाता हुआ जादू आए
उन्हें चिराग़ कहाने का हक़ दिया किसने
अँधेरों में जो कभी रौशनी नहीं देते ..द्विजेंद्र द्विज
आज बिखरी है हवाओं में चरागों की महक
आज रौशन है हवा चाँद-सितारों की तरह..सतपाल ख़याल
अब एक शे’र बहुत ही अज़ीम शायर का ,मोहतरम खुमार बाराबंकवी जिनका अंदाज़ ही निराला था।
आँखों के चराग़ों मे उजाले न रहेंगे
आ जाओ कि फिर देखने वाले न रहेंगे
और इस सुहावनी शाम को खुमार साहब की ग़ज़ल सुनिए जिसे गाया है मेरे मनपसंद गायक हंस राज हंस ने जिसकी आवाज़ दरगाहों में जलते चरागों सी रौशन है -
आज की ग़ज़ल से जुड़े तमाम शायरों और पाठकों को दीवाली की ढेर सारी शुभकामनाएं!!
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