Tuesday, November 1, 2011

शमीम फ़ारूक़ी

१९४३ में "गया" बिहार में जन्में सैयद मोहम्मद शमीम अहमद उर्फ़ शमीम फ़ारूक़ी बहुत अच्छे शायर हैं और इनका एक ग़ज़ल संग्रह "ज़ायक़ा मेरे लहू का" प्रकाशित हो चुका है । बहुत से अवार्ड आपको मिल चुके हैं। इनके अशआर ही इनका परिचय हैं-

सच है कि अपना रुख भी बदलना पड़ा मुझे
मैं क़ाफ़िले के साथ था चलना पड़ा मुझे














ग़ज़ल

डूबते सूरज का मंज़र वो सुहानी कश्तियाँ
फिर बुलाती हैं किसी को बादबानी कश्तियाँ

एक अजब सैलाब सा दिल के निहां-ख़ाने में था
रेत, साहिल, दूर तक पानी ही पानी कश्तियाँ

मौजे-दरिया ने कहा क्या, साहिलों से क्या मिला
कह गईं कल रात सब अपनी कहानी कश्तियाँ

खामशी से डूबने वाले हमें क्या दे गए
एक अनजाने सफ़र की कुछ निशानी कश्तियाँ

एक दिन ऐसा भी आया हल्क़-ए- गरदाब में
कसमसा कर रह गईं ख़्वाबों की धानी कश्तियाँ

आज भी अश्कों के इस गहरे समुंदर में "शमींम"
तैरती फिरती हैं यादों की पुरानी कश्तियाँ

Wednesday, October 26, 2011

दिवाली की शुभकामनाएँ















आज बिखरी है हवाओं में चरागों की महक
आज रौशन है हवा चाँद-सितारों की तरह..सतपाल ख़याल

Friday, October 14, 2011

अलविदा जगजीत














बात उस ज़माने से शुरू होती है जब मैं दसवीं ज़मात में था। मेरी दोस्ती हमेशा , उम्र में मुझ से बड़े लोगों के साथ रही है । एक दोस्त था मैं जब भी उससे मिलता था तो वो जगजीत सिंह की के बारे में बात करता था। एक दिन मैंने जगजीत साहब की कैसट उससे सुनने के लिए ली, नाम था "बिरहा दा सुल्तान" जिसमें शिव कुमार बटालवी के गीतों को चित्रा सिंह के साथ मिलकर जगजीत जी ने गाया था। सिलसिला कुछ ऐसा शुरू हुआ कि उसे मैनें कई सौ बार सुना। शिव बटालवी को प्रचलित करने में जगजीत जी का बहुत बड़ा योगदान है। इस कैसट में एक गीत था-

इह मेरा गीत किसे नहीं गाणा,इह मेरा गीत मैं आपे गाके भल्के ही मर जाणा- इसे आप भी सुनिए-

10 अक्तूबर की सुबह की सुबह जब जगजीत सिंह जी के निधन की ख़बर सुनी तो लगा कि कोई शरीर का हिस्सा अलग हो गया और आँखों नम हो गईं। रिशतेदार की शादी में था लिहाजा खु़द को संभाला और खुशी में शामिल रहा । लेकिन अंदर ही अंदर कुछ टूट गया जिसे मैं संभालता रहा और दर्द की वो किरचें आज अल्फ़ाज़ों में ढल गईं। दर्द पूरी दुनिया का सांझा होता है जिसे इसी गीत में शिव ने कहा कि-

किसे-किसे दे लेखीं हुंदा एडा दर्द कमाणा

सच है दर्द एक पूंजी भी हो जो किसी भी फ़नकार की आवाज़ या कलाम को अमर कर देती है। जगजीत साहब के पास भी ये दौलत थी, जवान बेटे की मौत और चित्रा की बेटी का खुदकुशी कर लेना। शोहरत और दुनियावी दौलत का कोई वारिस नहीं था। भगवान ने सब कुछ देके, बहुत कुछ छीन लिया था उनसे, वो दर्द उनकी आवाज़ से झलकता था।इसी कैसट में एक गीत था- शिकरा यार -

इक उडारी ऐसी मारी उह मुड़ वतनीं न आया

जगजीत साहब भी आज इस दुनिया से लंबी उडारी मार कर वहाँ चले गए जहाँ से वापसी मुमकिन नहीं। इस गीत को सुनिए-




लेकिन जगजीत सिंह ने करीब ४० साल अपनी आवाज़ के दम पर राज किया और एक बहुत ही उम्दा खज़ाना छोड़ कर गए हैं और आज ग़ज़ल गायकी अपाहिज़ हो गई है और एक युग का अंत हो गया। उन्होंने सिर्फ़ ग़ज़ल ही नहीं बल्कि बहुत अच्छे भजन और गुरूबानी भी गाई। एक शब्द जो बहुत ही खूबसूरत है,सुनिए-




मैं ही नही बल्कि बहुत से लोग आज उदास हैं और ग़ज़ल गायकी अनाथ सी हो गई है। मैनें शायरी का अपना सफ़र इस आवाज़ के साथ शुरू किया है और हर सफ़र की एक ही मंज़िल है और यही अंतिम सत्य लेकिन अपने पीछे वो एक बहुत ही सुरीला सरमाया छोड़ गए हैं जो कई सौ साल तक हमारे साथ रहेगा। मैं तो ऐसा मानता हूँ कि ऐसी आवाज़ें,ऐसे लोग एक बार ही पैदा होते हैं,एक तरह से देखें तो भगवान खु़द ही ऐसे लोगों की शक्लों में अवतरित होता है, कोई चाहकर या सोचकर,पढ़कर कभी भी ऐसा नहीं बन सकता।

यादों के झरोखे से-

"हैलो ज़िंदगी" के लिए जगजीत ने गुलज़ार के कलाम को गाया था जो बेहद पसंद किया गया था और इसी को सुनने के लिए मैं इसे देखता था, आप भी सुनिए-




दूरदर्शन पर "सुरभि" में जगजीत सिंह के साथ ये मुलाक़ात , जिसमें वो ग़ज़ल की बारीकियों के बारे में भी बात करते हैं। इसे सुनिए-




वो पहले ऐसे गायक थे जिन्होंने मल्टीट्रैक रिकार्डिंग की और अपना एक स्टूडिओ था और नई-नई तकनीक को सीखते थे और इस्तेमाल करते थे। पहली दफ़ा संतूर का इस्तेमाल ग़ज़ल गायकी में किया। भजन, शब्द,गीत, माहिए-टप्पे और ग़ज़ल को तो हर गली-कूचे तक पहुँचाया है और एक सुरीला दर्द छोड़कर गए हैं जो आने वाले कई सौ साल तक ज़िंदा रहेगा..अलविदा जगजीत... जीवन हो तो ऐसा हो , जाने के बाद भी सदियों तक अमर रहे..अलविदा जगजीत..विनम्र श्रदाँजलि

Saturday, October 8, 2011

राहत इंदौरी



ग़ज़ल

वो कभी शहर से गुज़रे तो ज़रा पूछेंगे
ज़ख़्म हो जाते हैं किस तरह दवा पूछेंगे

गुम न हो जाएँ मकानों के घने जंगल में
कोई मिल जाए तो हम घर का पता पूछेंगे

मेरे सच से उसे क्या लेना है, मैं जानता हूँ
हाथ कुरआन पे रखवा के वो क्या पूछेंगे

वो जो मुंसिफ़ है तो क्या कुछ भी सज़ा दे देगा
हम भी रखते हैं ज़ुबाँ, पहले ख़ता पूछेंगे



Thursday, September 15, 2011

फ़रहत शहज़ाद


क्या हुआ ग़र खुशी नहीं बस में
मुस्कुराना तो इख़्तियार में है

"आज की ग़ज़ल" का ये पौधा ३ साल पहले लगाया था और अब आप सब की दुआओं से शाखों पर कोंपलें फूंट आईं हैं और जब कोंपलें फूंट रही हों तो "फ़रहत शहज़ाद साहब" याद आ जाते हैं।मैं बहुत शुक्रगुज़ार हूँ उनका कि मेरी इक विनती पर उन्होंने इस मंच के लिए अपनी दो ग़ज़लें भेजी हैं। यूँ तो उनकी बहुत सारी ग़ज़लें नेट पर हैं लेकिन उनकी पसंदीदा ग़ज़लें जब उनके द्वारा भेजी गई हों तो बात कुछ और हो जाती है। फ़रहत साहब किसी परिवय के मोहताज नहीं हैं। शायरी से ज़रा सा तअल्लुक रखने वाला उनके नाम से वाकिफ़ है।

ग़मों ने बाँट लिया है मुझे यूँ अपस में
कि जैसे मैं कोई लूटा हुआ खज़ाना था


मेहदी साब ने इनकी बहुत सी ग़ज़लें गाईं और वो तमाम ग़ज़लें अमर हो गईं। फिर चाहे वो-तनहा-तनहा मत सोचा कर हो, या खुली जो आँख तो"..हो, ये सब ग़ज़लें हमें अपने साथ बहा ले जाती हैं और शायर का अनुभव , पूरी दुनिया का अनुभव बन जाता है। आपबीती , जगबीती बन जाती है और यही बात किसी एक शायर को बुलंदियों तक लेके जाती है।

ज़िन्दगी को उदास कर भी गया
वो कि मौसम था एक गुज़र भी गया

साथ ज़माना है लेकिन
तनहा तनहा रहता हूँ

धड़कन धड़कन ज़ख़्मी है
फिर भी हँसता रहता हूँ

खाकर ज़ख़्म दुआ दी हमने
बस यूँ उम्र बिता दी हमने


एक बस तू ही नहीं मुझसे ख़फ़ा हो बैठा
मैंने जो संग तराशा वो ख़ुदा हो बैठा

कितने ऐसे अशआर हैं जो इस कलम से निकले हैं और हम लोगों तक पहुँचे और अमर हो गए। मैं बड़े आदर के साथ ये ग़ज़लें यहाँ पेश कर रहा हूँ-


ग़ज़ल

जानना मुझको मेरी जान बहुत आम नहीं
मेरे हाथों में जो खाली है मेरा जाम नहीं

जीत और हार मुक़द्दर है मगर जाने-अज़ीज
वक़्त की लहर मिटा पाए मैं वो नाम नहीं

साथ रख मुझको, कठिन वक़्त में काम आऊंगा
दश्त में, आस का साया हूँ, कड़ी शाम नहीं

आइना घर है मेरा, ढूँढने वालो, मुझको
नाम सब मेरे हैं, और मेरा कोई नाम नहीं

साथ चलने की ज़रा सोच के हामी भरना
उम्र,दो गाम सही,ज़िंदगी दो गाम नहीं

कौन है,क्यों है,कहाँ से है,कहाँ तक तू है
जब से सोचा है तुझे,ज़हन को आराम नहीं

मेरे सीने में समंदर है, तो लब पर सहरा
प्यास,आग़ाज़ सही,तिशनगी,अंजाम नहीं

बहरे-रमल की मुज़ाहिफ़ शक्ल
फ़ाइलातुन फ़'इ'लातुन फ़'इ'लातुन फ़ालुन
2122 1122 1122 112/22



ग़ज़ल

बिछुड़ के मुझसे, मेरे तार-तार दामन से
सुना है अब वो फ़सुर्दा है अपने जीवन से

न जाने किस तरह काँटो से भर गया दामन
सफ़र तो हमने किया था शुरू गुलशन से

हरेक शख़्स ये समझा मैं पी रहा था शराब
फ़रार ढूँढ रहा था मैं एक उलझन से

उसे ख़बर भी न हो पाई,खुद गंवा के उसे
तमाम उम्र उसी का रहा मैं तन-मन से

अजब घुटन में घिरा है नफ़स-नफ़स मेरा
बिछुड़ गया मेरा "दिल-घर’, "सुकून-आंगन" से

तमाम उम्र रहा दिल में तेरे ग़म की तरह
अजीब सा मेरा रिश्ता है "हिज्र-सावन" से

अगरचे कम न था "शहज़ाद" हौसला दिल का
वो मात खा ही गया अपने बावले-पन से

बहरे-मुजत्तस की मुज़ाहिफ़ शक्ल
म'फ़ा'इ'लुन फ़'इ'लातुन म'फ़ा'इ'लुन फ़ा'लुन
1212 1122 1212 22/ 112

इस शे’र-

न जाने किस तरह काँटो से भर गया दामन
सफ़र तो हमने किया था शुरू गुलशन से

को पढ़ने के बाद मैनें उनसे गुज़ारिश की थी कि इस मिसरे में ऐसा लगता है कुछ टाइप करने से रह गया है तो उन्होंने ये जवाब दिया-

"Mujhey khushi hey ke tum ne itni tawajja se par-ha ke ye sawal zehen men uthey. Let me answer them in your sequence only.

1)Nahin, pehley misrey men kuchh type honey se nahin chhota.
ChoNkey SHUROO, dar-asl Sheen, Ray, Wa-o and Ain mil ker banta hey aur Ain ko poorey taur per sab pronounce nahin ker patey, is liy-e is lafz ka wazan jan-ney ke liy-e zaroori hey ke isey "SHUROOK" ke taur per par-ho, wazan poora hoja-ey ga aur dar-haqeeqat yahi is lafz ka sahi wazan hey.

2)"Hijr-Sawan", "Dil-Ghar", "Sukoon-AaNgan" waghera do lafz jor ker aik bana-ee huee tarkeebein hein jo original Urdu meN aam taur per ista-maal hoti theen lekin ab kam sha-er inhein istamaal kertey hein. "Hijr-Sawan", yani, Hijr ka sawan, "Dil-Ghar", yani Dil ka ghar n "Sukoon-AaNgan" yani Sukoon ka aaNgan waghera.Mein ne kafi purani tarkeeboN ko naya kerney ki koshish ki hey aur ye alfaaz us koshish ka aik hissa hein.

Agar further koi baat, sawaal zehen meN aa-ey to be-jhijak likh dena."

Tumhara,
FS

और आइए अब उनका ये दिलकश-अंदाज़ देखते और सुनते हैं जिसे उन्होंने समंदर के किनारे शूट किया है-




अहमद अली बर्की साहब का शुक्रिया उन्होंने ग़ज़लों को उर्दु मे टाइप करके उसे इमेज में तबदील किया और फ़रहत साहब का तहे-दिल से शुक्रिया इस मंच के लिए ग़ज़लें भेजने का।

Monday, August 22, 2011

डा. एम.बी. शर्मा ‘मधुर’ की ग़ज़ल












1 अप्रैल 1951 में पंजाब में जन्मे डा० मधुभूषण शर्मा ‘मधुर’ अँग्रेज़ी साहित्य में डाक्टरेट हैं. बहुत ख़ूबसूरत आवाज़ के धनी ‘मधुर’ अपने ख़ूबसूरत कलाम के साथ श्रोताओं तक अपनी बात पहुँचाने का हुनर बाख़ूबी जानते हैं.इनका पहला ग़ज़ल संकलन जल्द ही पाठकों तक पहुँचने वाला है.आप आजकल डी०ए०वी० महविद्यालय कांगड़ा में अँग्रेज़ी विभाग के अध्यक्ष हैं.













लोगों की शक्लों में ढल कर सड़कों पे जो लड़ने निकले हैं
वो कुछ तो बूढ़े अरमाँ हैं कुछ शोख़ -से सपने निकले हैं

ऐ रहबर ! अपनी आँख उठा, कुछ देख ज़रा, पहचान ज़रा
ग़ैरों-से जो तुझको लगते हैं वो तेरे अपने निकले हैं

बहला न सकीं जब संसद में रोटी की दी परिभाषाएँ
तो भूख की आग से बचने को हर आग में जलने निकले हैं

बदले परचम हाक़िम लेकिन बदली न हुकूमत की सूरत
सब सोच समझ कर अब घर से तंज़ीम बदलने निकले हैं

जिस हद में हमारे कदमों को कुछ ज़ंजीरों से जकड़ा है
बिन तोड़े उन ज़ंजीरों को उस हद से गुज़रने निकले हैं

हम आज भगत सिंह के जज़्बों को ले कर अपने सीनों में
जो राह दिखाई गांधी ने वो राह परखने निकले हैं

(8 felun)

Wednesday, August 10, 2011

अनवारे इस्लाम


1947 में जन्में अनवारे इस्लाम द्विमासिक मासिक पत्रिका "सुख़नवर" का संपादन करते हैं। इन्होंने बाल साहित्य में भी अपना बहुत योगदान दिया है । साथ ही कविता, गीत , कहानी भी लिखी है। सी.बी.एस.ई पाठयक्रम में भी इनकी रचनाएँ शामिल की गईं हैं। आप म.प्र. साहित्य आकादमी और राष्ट्रीय भाषा समिती द्वारा सम्मान हासिल कर चुके हैं। लेकिन ग़ज़ल को केन्द्रीय विधा मानते हैं। इनकी दो ग़ज़लें हाज़िर हैं, जिन्हें पढ़कर ये समझा जा सकता है कि गज़लीयत क्या होती है। बहुत ही आदर के साथ ये ग़ज़ले मैं शाया कर रहा हूँ-


ख़यालों के समंदर में उतर जाता हूँ
मैं तेरी ज़ुल्फ़ की मानिंद बिखर जाता हूँ

वक़्त की इतनी ख़राशें हैं मेरे चेहरे पर
आईना सामने आ जाए तो डर जाता हूँ

लेके उम्मीद निकलता हूँ मैं क्या- क्या घर से
रंग उड़ जाता है जब शाम को घर जाता हूँ

कितने बेनूर उजाले हैं मेरे चारों ओर
रोशनी चीखती मिलती है जिधर जाता हूँ

टूटने की मेरे आवाज़ नहीं हो पाती
अपने एहसास में ख़ामोश बिखर जाता हूँ

पार जाना है तो तूफ़ान से डरना कैसा
कश्तियाँ तोड़ के दरिया में उतर जाता हूँ


पने जज़्बात वो ऐसे भी बता देते हैं
जब कोई हाथ मिलाता है दबा देते हैं

ख़त तो लिखते हैं अज़ीज़ों को बहुत खुश होकर
और बातों में कुछ आँसू भी मिला देते हैं

बैठ जाते हैं जो शाखों पे परिंदे आकर
पेड़ को फूलने -फलने की दुआ देते हैं

तुमने देखी ही नहीं उनकी करिश्मा साज़ी
नाव काग़ज़ की जो पानी पे चला देते हैं

रास्ते मैं तो बनाता हूँ कि पहुँचूं उन तक
और वो राह को दीवार बना देते हैं

देखते हैं जो दरख्तों पे फलों का आना
हम भी अपना सरे -तस्लीम झुका देते हैं

दोनों ग़ज़लें बहरे-रमल की मुज़ाहिफ़ शक्ल में कहीं गईं हैं-
फ़ाइलातुन फ़'इ'लातुन फ़'इ'लातुन फ़ालुन
2122 1122 1122 112/22

शायर का पता-
ईमेल :sukhanwar12@gmail.com
मोबाइल :09893663536



Tuesday, August 2, 2011

नवीन सी चतुर्वेदी









नवीन सी चतुर्वेदी की एक ग़ज़ल

तरक्क़ी किस तरह आये भला उस मुल्क़ में प्यारे
परिश्रम को जहाँ उस की सही क़ीमत नहीं मिलती

ग़ज़ल

आदमीयत की वक़ालत कर रहा है आदमी
यूँ उजालों की हिफ़ाज़त कर रहा है आदमी

सिर्फ ये पूछा - भला क्या अर्थ है अधिकार का
वो समझ बैठे बग़ावत कर रहा है आदमी

छीन कर कुर्सी अदालत में घसीटा है फ़क़त
चोट खा कर भी, शराफ़त कर रहा है आदमी

जब ये चाहेगा बदल देगा ज़माने का मिज़ाज
सिर्फ क़ानूनों की इज्ज़त कर रहा है आदमी

सल्तनत के तख़्त के नीचे है लाशों की परत
कैसे हम कह दें हुक़ूमत कर रहा है आदमी

मुद्दतों से शह्र की ख़ामोशियाँ यह कह रहीं
आज कल भेड़ों की सुहबत कर रहा है आदमी

Saturday, June 18, 2011

अंजुम लुधियानवी की एक ग़ज़ल















अच्छी ग़ज़लें कहना खेल नहीं अंजुम
किरनें बुनकर चाँद बनाना पड़ता है

ग़ज़ल

तोड़ कड़ियाँ ज़मीर की अंजुम
और कुछ देर तू भी जी अंजुम

एक भी गाम चल न पायेगी
इन अँधेरों में रौशनी अंजुम

ज़िंदगी तेज़ धूप का दरिया
आदमी नाव मोम की अंजुम

जिस घटा पर थी आँख सहरा की
वो समंदर पे मर गई अंजुम

*क़ुलज़मे-खूं सुखा के दम लेगी
आग होती है आगही अंजुम

जिन पे सूरज की मेहरबानी हो
उन पे खिलती है चाँदनी अंजुम

सुबह का ख़्वाब उम्र भर देखा
और फिर नींद आ गई अंजुम

*क़ुलज़म-दरिया

बहरे-खफ़ीफ़ की मुज़ाहिफ़ शक्ल
फ़ा’इ’ला’तुन म’फ़ा’इ’लुन फ़ा’लुन

Tuesday, June 7, 2011

कँवल ज़िआई



















पर तो अता किये मगर परवाज़ छीन ली
अंदाज़ दे के खूबी-ए-अंदाज़ छीन ली
मुझको सिला मिला है मेरे किस गुनाह का
अलफ़ाज़ तो दिये मगर आवाज़ छीन ली


1930 में जन्मे कँवल ज़िआई साहब बहुत अच्छे शायर हैं। जिन्होंने बहुत से मुशायरों में शिरकत की और आप सिने स्टार राजेन्द्र कुमार के सहपाठी भी रहे हैं। मै इनके बारे में क्या कहूँ, छोटा मुँह और बड़ी बात हो जाएगी। कुछ दिन पहले इनका ग़ज़ल संग्रह "प्यासे जाम" इनके बेटे यशवंत दत्त्ता जॊ की बदौलत पढ़ने को मिला। आप हमारे बजुर्ग शायर हैं, हमारे रहनुमा हैं। भगवान इनको लम्बी उम्र और सेहत बख़्शे । राजेन्द्र कुमार जी ने कभी मजाक में कहा था कि आप शक्ल से जमींदार लगते हैं तो आप ने फ़रमाया था-

शक्ल मेरी देखना चाहें तो हाज़िर है, मगर
मेरे दिल को मेरे शेरो में उतर कर देखिये

कुछ दिन पहले २७ मई को इनकी शादी की सालगिरह थी। सो एक बार फिर दिली मुबारक़बाद। आप आर्मी से रिटायर हैं और अभी देहरादून में हैं।बहुत शोहरत कमाई है आपने और कई महफ़िलों की जान रहे हैं आप। ज़िंदगी के प्रति काफ़ी पैनी नज़र रखते हैं-

बात करनी है मुझे इक वक़्त से
बात छोटी है मगर छोटी नहीं
ज़िन्दगी को और भी कुछ चाहिये
ज़िन्दगी दो वक़्त की रोटी नहीं

उम्र के इस पड़ाव पर ख़ुद को आइने में देखकर कुछ यूँ कहते हैं-

जानी पहचानी सी सूरत जाने पहचाने से नक्श
वो यक़ीनन मैं नहीं लेकिन ये मुझ सा कौन है
एक ही उलझन में सारी रात मैंने काट दी
जिसको आईने में देखा था वो बूढ़ा कौन है

इनकी ग़ज़ल हाज़िर है-

कोई भी मसअला मरने का मारने का नहीं
सवाल हक़ का है दामन पसारने का नहीं

मैं एक पल का ही मेहमां हूँ लौट जाऊंगा
मेरा ख़याल यहाँ शब गुजारने का नहीं

उन्हें भी सादगी मेरी पसंद आती है
मुझे भी शौक नया रूप धारने का नहीं

हदूद-ए-शहर में अब जंगबाज़ आ पहुंचे
ये वक़्त रेशमी जुल्फें सवांरने का नहीं

Sunday, May 22, 2011

ग़ज़ल- सुरेन्द्र चतुर्वेदी











ग़ज़ल- सुरेन्द्र चतुर्वेदी

दूर तक ख़ामोशियों के संग बहा जाए कभी
बैठ कर तन्हाई में ख़ुद को सुना जाए कभी

देर तक रोते हुए अक्सर मुझे आया ख़याल
आईने के सामने ख़ुद पर हँसा जाए कभी

जिस्म के पिंजरे का पंछी सोचता रहता है ये
आसमां में पंख फैलाकर उड़ा जाए कभी

उम्र भर के इस सफ़र में बारहा चाहा तो था
मंजिले-मक़सूद मेरे पास आ जाए कभी

मुझमें ग़ालिब की तरह शायर कोई कहने लगा
अनकहा जो रह गया वो भी कहा जाए कभी

ख़ुद की ख़ुशबू में सिमट कर उम्र सारी काट ली
कुछ दिनों तो दूर ख़ुद से भी रहा जाए कभी

हँस पड़ीं साँसे उन्हें जब रोककर मैनें कहा
ज़िंदगी को आखिरी इक ख़त लिखा जाए कभी

Tuesday, April 12, 2011

पुरुषोत्तम अब्बी "आज़र" की ग़ज़ल










पुरुषोत्तम अब्बी "आज़र" की एक खूबसूरत ग़ज़ल आपकी नज़्र कर रहा हूँ । जनाब बहुत अच्छे ग़ज़लकार हैं और ग़ज़ल के मिज़ाज से वाक़िफ़ हैं। ग़ज़ल मुलाहिज़ा कीजिए-

सूरज उगा तो फूल-सा महका है कौन-कौन
अब देखना यही है कि जागा है कौन-कौन

बाहर से अपने रूप को पहचानते है सब
भीतर से अपने आप को जाना है कौन-कौन

लेने के साँस यों तो गुनेहगार हैं सभी
यह देखिए कि शह्र में ज़िन्दा है कौन-कौन

अपना वजूद यों तो समेटे हुए हैं हम
देखो इन आँधियों में बिखरता है कौन-कौन

दावे तो सब के सुन लिए "आज़र" मगर ये देख
तारे गगन से तोड़ के लाता है कौन-कौन

मफ़ऊल फ़ाइलात मुफ़ाईल फ़ाइलुन
221 2121 1221 2 12
बहरे-मज़ारे की मुज़ाहिफ़ शक्ल

Saturday, March 19, 2011

प्रफुल्ल कुमार परवेज़







ग़ज़ल

वो बेहिसाब है तन्हा तमाम लोगों में
जो आदमी है सरापा तमाम लोगों में

तू झूठ, सच की तरह बोलने में माहिर है
अज़ीम है तेरा रुतबा तमाम लोगों में

ख़ुदी की बात लबों पर ज़रा-सी क्या आई
मैं घिर गया हूँ अकेला तमाम लोगों में

मिलो तपाक से नीयत करे करे न करे
कमाल है ये सलीका तमाम लोगों में

ये क्या मुकामे-जहाँ है कि अब गरज़ के सिवा
बचा नहीं कोई रिश्ता तमाम लोगों में

इक आरज़ू थी जो शायद कभी न हो पूरी
हबीब-सा कोई मिलता तमाम लोगों में

म'फ़ा'इ'लुन फ़'इ'लातुन म'फ़ा'इ'लुन फ़ा'लुन
1212 1122 1212 22/ 112
बहरे-मजतस


{ थाईलैड से यह ग़ज़ल पोस्ट कर रहा हूँ , दूर हूँ , लेकिन हिंदी लिखकर ऐसा लगा मानो घर पर बैठा हूँ }

Saturday, February 19, 2011

नज़ीर बनारसी









(1909-1996)


हमने जो नमाजें भी पढ़ी हैं अक्सर, गंगा तेरे पानी से वजू कर करके ..नज़ीर बनारसी

ग़ज़ल

इक रात में सौ बार जला और बुझा हूँ
मुफ़लिस का दिया हूँ मगर आँधी से लड़ा हूँ

जो कहना हो कहिए कि अभी जाग रहा हूँ
सोऊँगा तो सो जाऊँगा दिन भर का थका हूँ

कंदील समझ कर कोई सर काट न ले जाए
ताजिर हूँ उजाले का अँधेरे में खड़ा हूँ

सब एक नज़र फेंक के बढ़ जाते हैं आगे
मैं वक़्त के शोकेस में चुपचाप खड़ा हूँ

वो आईना हूँ जो कभी कमरे में सजा था
अब गिर के जो टूटा हूँ तो रस्ते में पड़ा हूँ

दुनिया का कोई हादसा ख़ाली नहीं मुझसे
मैं ख़ाक हूँ, मैं आग हूँ, पानी हूँ, हवा हूँ

मिल जाऊँगा दरिया में तो हो जाऊँगा दरिया
सिर्फ़ इसलिए क़तरा हूँ ,मैं दरिया से जुदा हूँ

हर दौर ने बख़्शी मुझे मेराजे मौहब्बत
नेज़े पे चढ़ा हूँ कभी सूली पे चढ़ा हूँ

दुनिया से निराली है 'नज़ीर' अपनी कहानी
अंगारों से बच निकला हूँ फूलों से जला हूँ

मफ़ऊल मफ़ाईल मुफ़ाईल फ़ऊलुन
22 1 1 221 1221 122
(हज़ज की मुज़ाहिफ़ शक्ल)

Friday, December 31, 2010

वक़्त ने फिर पन्ना पलटा है















न पाने से किसी के है, न कुछ खोने से मतलब है
ये दुनिया है इसे तो कुछ न कुछ होने से मतलब है

गुज़रते वक़्त के पैरों में ज़ंजीरें नहीं पड़तीं
हमारी उम्र को हर लम्हा कम होने से मतलब है..वसीम बरेलवी

इस नये साल के मौक़े पर द्विज जी की ग़ज़ल मुलाहिज़ा कीजिए जो किसी दुआ से कम नहीं है और आप सब को नये साल की शुभकामनाएँ।

द्विजेन्द्र द्विज

ज़िन्दगी हो सुहानी नये साल में
दिल में हो शादमानी नये साल में

सब के आँगन में अबके महकने लगे
दिन को भी रात-रानी नये साल में

ले उड़े इस जहाँ से धुआँ और घुटन
इक हवा ज़ाफ़रानी नये साल में

इस जहाँ से मिटे हर निशाँ झूठ का
सच की हो पासबानी नये साल में

है दुआ अबके ख़ुद को न दोहरा सके
नफ़रतों की कहानी नये साल में

बह न पाए फिर इन्सानियत का लहू
हो यही मेहरबानी नये साल में

राजधानी में जितने हैं चिकने घड़े
काश हों पानी-पानी नये साल में

वक़्त! ठहरे हुए आँसुओं को भी तू
बख़्शना कुछ रवानी नये साल में

ख़ुशनुमा मरहलों से गुज़रती रहे
दोस्तों की कहानी नये साल में

हैं मुहब्बत के नग़्मे जो हारे हुए
दे उन्हें कामरानी नये साल में

अब के हर एक भूखे को रोटी मिले
और प्यासे को पानी नये साल में

काश खाने लगे ख़ौफ़ इन्सान से
ख़ौफ़ की हुक्मरानी नये साल में

देख तू भी कभी इस ज़मीं की तरफ़
ऐ नज़र आसमानी ! नये साल में

कोशिशें कर, दुआ कर कि ज़िन्दा रहे
द्विज ! तेरी हक़-बयानी नये साल में.

Monday, December 6, 2010

सत्यप्रकाश शर्मा की एक ग़ज़ल

सत्यप्रकाश शर्मा

तस्वीर का रुख एक नहीं दूसरा भी है
खैरात जो देता है वही लूटता भी है

ईमान को अब लेके किधर जाइयेगा आप
बेकार है ये चीज कोई पूछता भी है?

बाज़ार चले आये वफ़ा भी, ख़ुलूस भी
अब घर में बचा क्या है कोई सोचता भी है

वैसे तो ज़माने के बहुत तीर खाये हैं
पर इनमें कोई तीर है जो फूल सा भी है

इस दिल ने भी फ़ितरत किसी बच्चे सी पाई है
पहले जिसे खो दे उसे फिर ढूँढता भी है

हज़ज की मुज़ाहिफ़ शक्ल
मफ़ऊल मफ़ाईल मुफ़ाईल मफ़ाईल
22 1 1221 1221 122(1)


शायर का पता-
२५४ नवशील धाम
कल्यान पुर-बिठुर मार्ग, कानपुर-१७
मोबाइल-07607435335

Friday, December 3, 2010

सोच के दीप जला कर देखो- अंतिम क़िस्त

मैनें लफ़्ज़ों को बरतने में लहू थूक दिया
आप तो सिर्फ़ ये देखेंगे ग़ज़ल कैसी है

मुनव्वर साहब का ये शे’र बेमिसाल है और अच्छी ग़ज़ल कहने में होने वाली मश्क की तरफ इशारा करता है।लफ़्ज़ों को बरतने का सलीका आना बहुत ज़रूरी है और ये उस्ताद की मार और निरंतर अभ्यास से ही आ सकता है।ग़ज़ल जैसी सिन्फ़ का हज़ारों सालों से ज़िंदा रहने का यही कारण है शायर शे’र कहने के लिए बहुत मश्क करता है और इस्लाह शे’र को निखार देती है। लफ़्ज़ों की थोड़ी सी फेर-बदल से मायने ही बदल जाते हैं।

नाज़ुकी उसके लब की क्या कहिए,
पंखुड़ी इक गुलाब की
सी है

दूसरे मिसरे में सी के इस्तेमाल ने शे’र की नाज़ुकी को दूना कर दिया है। इसी हुनर की तरफ़ मुनव्वर साहब ने इशारा किया है। खैर!मुशायरे की अंतिम क़िस्त में मुझे अपनी ग़ज़ल आपके सामने रखते हुए एक डर सा लग रहा है। जब आप ग़ज़ल की बारीकियों की बात करते हैं तो अपना कलाम रखते वक़्त डर लगेगा ही। ये बहर सचमुच कठिन थी और अब पता चला की मुनीर नियाज़ी ने पाँच ही शे’र क्यों कहे। कई दिन इस ग़ज़ल पर द्विज जी से चर्चा होती रही। और ग़ज़ल आपके सामने है । Only Result counts , not long hours of working..ये भी सच है।











सतपाल ख़याल

उन गलियों में जा कर देखो
गुज़रा वक़्त बुला कर देखो

क्या-क्या जिस्म के साथ जला है
अब तुम राख उठा कर देखो

क्यों सूली पर सच का सूरज
सोच के दीप जला कर देखो

हम क्या थे? क्या हैं? क्या होंगे?
थोड़ी खाक़ उठा कर देखो

दर्द के दरिया थम से गए हैं
ज़ख़्म नए फिर खा कर देखो

मुशायरे में हिस्सा लेने वाले सब शायरों का तहे-दिल से शुक्रिया और कुछ शायरों को तकनीकी खामियों के चलते हम शामिल नहीं कर सके, जिसका हमें खेद है।

Monday, November 29, 2010

सोच के दीप जला कर देखो

इस बहर में शे’र कहना सचमुच पाँव में पत्थर बाँध कर पहाड़ पर चढ़ने जैसा है। क्योंकि इसमें तुकबंदी की तो बहुत गुंज़ाइश थी लेकिन शे’र कहना बहुत कठिन। इसी वज़ह से तीन-चार शायरों को हम इसमें शामिल नहीं कर सके । दानिश भारती जी(मुफ़लिस) ने कुछ ग़ल्तियों की तरफ़ इशारा किया था, उनको हमने सुधारने की कोशिश की है और आप सबसे गुज़ारिश है कि कहीं कुछ ग़ल्ति नज़र आए तो ज़रूर बताएँ। हमारा मक़सद यह भी रहता है कि नये प्रयासों को भी आपके सामने लेकर आएँ और अनुभवी शायरों को भी। भावनाएँ तो हर शायर की एक जैसी होती हैं लेकिन उनको व्यक्त करने की शैली जुदा होती है। और यही अंदाज़े-बयां एक शायर को दूसरे से जुदा करता है और यही महत्वपूर्ण है।

द्विज जी का ये शे’र

यह बस्ती कितनी रौशन है
सोच के दीप जला कर देखो

इसी अंदाज़े-बयां का एक उदाहरण है। हर शायर ने तारीकी दूर करने के लिए सोच के दीप जलाए हैं लेकिन बस्ती कितनी रौशन है उसको देखने के लिए भी सोच के दीप जलाए जा सकते हैं । बात को जुदा तरीके से रखने का ये हुनर ही शायरी है जिसकी मिसाल है ये एक और शे’र -

जाओ, इक भूखे बच्चे को
लोरी से बहला कर देखो

अगली और अंतिम क़िस्त में मैं अपना प्रयास आपके सामने रखूंगा।लीजिए मुलाहिज़ा कीजिए द्विज जी की ग़ज़ल-











द्विजेंद्र द्विज

चोट नई फिर खा कर देखो
शहरे-वफ़ा में आ कर देखो

अपनी छाप गँवा बैठोगे
उनसे हाथ मिला कर देखो

आए हो मुझको समझाने
ख़ुद को भी समझा कर देखो

सपनों को परवाज़ मिलेगी
आस के पंख लगा कर देखो

जिनपे जुनूँ तारी है उनको
ज़ब्त का जाम पिलाकर देखो

जाओ, इक भूखे बच्चे को
लोरी से बहला कर देखो

लड़ जाते हो दुनिया से तुम
ख़ुद से आँख मिला कर देखो

यह बस्ती कितनी रौशन है
सोच के दीप जला कर देखो

सन्नाटे की इस बस्ती में
‘द्विज’, अशआर सुना कर देखो

Thursday, November 25, 2010

सोच के दीप जला कर देखो-आठवीं क़िस्त

पहले शायर : कमल नयन शर्मा । आप द्विज जी के भाई हैं और एयर-फ़ोर्स में हैं। इस मंच पर हम इनका स्वागत करते हैं।









कमल नयन शर्मा

दुख को मीत बना कर देखो
खुद को सँवरा पा कर देखो

मिलता है वो, मिल जाएगा
मन के अंदर जाकर देखो

कब भरते हैं पेट दिलासे
असली फ़स्लें पाकर देखो

भर देंगे वो तेरी झोली
उनकी धुन में गा कर देखो

कब लौटे है जाने वाले
फिर भी आस लगाकर देखो

मत भटको यूं द्वारे-द्वारे
सोच के दीप जला कर देखो

आप 'कमल' खुद खिल जाओगे
जल से बाहर आकर देखो

दूसरे शायर हैं जनाब कवि कुलवंत जी









कुलवंत सिंह

सोच के दीप जला कर देखो
खुशियां जग बिखरा कर देखो

सबको मीत बना कर देखो
प्रेम का पाठ पढ़ा कर देखो

खून बने अपना ही दुश्मन
हक़ अपना जतला कर देखो

मज़मा दो पल में लग जाता
कुछ सिक्के खनका कर देखो

सिलवट माथे दिख जायेंगी
शीशे को चमका कर देखो

जनता उलझी है सालों से
नेता को उलझा कर देखो

खुद में खोये यह बहरे हैं
जोर से ढ़ोल बजा कर देखो

और शाइरा निर्मला कपिला जी का स्वागत है आज की ग़ज़ल पर।









निर्मला कपिला

मन की मैल हटा कर देखो
सोच के दीप जला कर देखो

सुख में साथी सब बन जाते
दुख में साथ निभा कर देखो

राम खुदा का झगडा प्यारे
अब सडकों पर जा कर देखो

लडने से क्या हासिल होगा?
मिलजुल हाथ मिला कर देखो

औरों के घर रोज़ जलाते
अपना भी जलवा कर देखो

देता झोली भर कर सब को
द्वार ख़ुदा के जाकर देखो

बिन रोजी के जीना मुश्किल
रोटी दाल चला कर देखो

Monday, November 22, 2010

सोच के दीप जला कर देखो-सातवीं क़िस्त

रंजन के इस खूबसूरत शे’र-

कष्ट, सृजन की नींव बनेगा
सोच के दीप जला कर देखो


के साथ हाज़िर हैं तरही की अगली दो ग़ज़लें-

रंजन गोरखपुरी

नफ़रत बैर मिटा कर देखो
प्यार के फूल खिला कर देखो

गुंजाइश मुस्कान की है बस
बिगडी बात बना कर देखो

ग़ज़लें बेशक छलकेंगी फिर
बस तस्वीर उठा कर देखो

डोर जुडी हो अब भी शायद
वक्त की धूल उड़ा कर देखो

मुझसे सरहद अक्सर कहती
मसले चंद भुला कर देखो

राम को फिर वनवास मिला है
आज अयोध्या जा कर देखो

मिले बुलंदी बेशक साहेब
घर में वक्त बिता कर देखो

कष्ट, सृजन की नींव बनेगा
सोच के दीप जला कर देखो

अरसे बाद मिले हो "रंजन"
कोई शेर सुना कर देखो

डा.अजमल हुसैन खान माहक

हाथ से हाथ मिला कर देखो
सपने साथ सजा कर देखो

दुनिया तकती किसकी जानिब
"ओवामा" तुम आ कर देखो

हैं नादाँ जो दीवाने से
उनको भी समझा कर देखो

सब अँधियारा मिट जायेगा
सोच के दीप जला कर देखो

बात नही ये रुकने वाली
"माहक" आस लगा कर देखो।