Tuesday, March 9, 2010

मख़्मूर सईदी साहब को श्रदाँजलि











जाना तो मेरा तय है मगर ये नहीं मालूम
इस शहर से मैं आज चला जाऊँ कि कल जाऊँ
...मख़्मूर

1934 को टोंक (राजस्थान) में जन्मे सुल्तान मुहम्मद खाँ उर्फ़ मख़्मूर सईदी, 2 मार्च 2010 को अपनी ज़िंदगी का सफ़र ख़त्म करके इस दुनिया से विदा हो गए। इनकी प्रमुख कृतियाँ हैं-पेड़ गिरता हुआ,गुफ़्तनी, सियाह बर सफ़ेद, आवाज़ का जिस्म, सबरंग, आते-जाते लम्हों की सदा, बाँस के जंगलों से गुज़रती हवा, दीवारो-दर के दरमियाँ हैं। इन्हें दिल्ली, उत्तर प्रदेश, बिहार,और राजस्थान उर्दू अकादमियों के पुरस्कारों के अलावा केन्द्रीय साहित्य अकादमी से भी सम्मान हासिल हुआ।

शायर तमाम उम्र शे’र उधेड़ता-बुनता रहता है और कुछ खोजता रहता है। इस बात को लेकर मीर ने यूँ कहा है-

गई उम्र दर बंद-ऐ-फ़िक्र-ऐ-ग़ज़ल
सो इस फ़न को ऐसा बड़ा कर चले


ऐसा ही कुछ मख़्मूर साहब ने भी किया। अपनी उम्र के ७६ सालों में शायरी के पुराने और नये दौर को नज़दीक से देखा है और वक़्त के हिसाब से ख़ुद को ढाला भी। रिवायती और जदीद शायरी की बात आती है तो टी.एस. इलीयट के ये शब्द ख़ास मायने रखते हैं जो कुछ दिन पहले किसी किताब में पढ़ने को मिले-

"साहित्य में भी कवि को परंपरा का ख़याल रखना चाहिए। यदि परंपरा को छोड़कर कवि अपनी ही संवेदनाओं में उलझ जाए और अपने ही दुख-दर्द की बात कहे तो वो असली मक़सद से भटक जाता है। परंपरा के ख़याल से दो फ़ायदे होते हैं-

कवि को पता चल जाता है कि उसे क्या कहना या लिखना है, कैसे कहना है और उसे परंपरा के ज्ञान से अपनी कृति की क़ीमत पता चल जाती है।"

और ये बात भी पक्की है कि शायर को अपने वक़्त के साथ चलते हुए भी अपना अलग रस्ता इख़्तियार करना होता है तभी वो सफ़ल शायर बन सकता है। ऐसा ही कुछ मख़्मूर साहब ने किया, रिवायत की नींव पर जदीद शायरी की मंज़िलें खड़ी कीं। पुरानी और नयी शराबें जब मिलती हैं तो नशा दूना हो जाता है। देखिए, मख़्मूर साहब के अशआर नये लहजे की पैरवी करते हुए

पत्ते हिलें तो शाखों से चिंगारियाँ उड़ें
सर सब्ज़ पेड़ आग उगलते हैं धूप में

चारो तरफ़ हवा की लचकती कमान है
ये शाख से परिन्दे की पहली उड़ान है

रेत का ढेर थे हम,सोच लिया था हम ने
जब हवा तेज़ चलेगी तो बिखरना होगा

पार करना है नदी को तो उतर पानी में
बनती जाएगी ख़ुद एक राहगुज़र पानी में

दिन मुझे क़त्ल करके लौट गया
शाम मेरे लहू में तर आई

भीड़ में है मगर अकेला है
उस का क़द दूसरों से ऊँचा है

मैं तो ये मानता हूँ कि रिवायत हमें ये बताती है कि कैसे कहना है? लेकिन किस अंदाज़ में कहना है? ये शायर ख़ुद तय करता है। अगर शायर अपनी बात को किसी दूसरे पुराने शायर के ओढ़े हुए अंदाज़,मिज़ाज या पुराने प्रतीकों का इस्तेमाल करके, ज़रा से हेर-फेर से शे’र कहता है तो रिवायती शायर है। लेकिन अगर वो ग़ज़ल के मिज़ाज को ठेस पहुँचाए बिना अपने अंदाज़ में, अपने प्रतीकों से अलग बात कह देता है तो वो जदीद है। मगर हुआ यूँ कि इश्क़-मुहव्बत की बात करना वाले को ही लोग रिवायती शायर समझने लग गए। बदकि़स्मती ये है कि ग़ज़ल में काजू, किशमिश,विस्की,विधायक, संसद आदि का ज़िक्र करना जदीद शायरी की निशानी बन गया है, मिज़ाज और लहजा क्या होता कुछ शायर इसे समझने की ज़हमत नहीं उठाते। ख़ैर , मख़्मूर साहब की तीन ग़ज़लें मुलाहिज़ा कीजिए-

ग़ज़ल

कितनी दीवारें उठीं है एक घर के दरमियाँ
घर कहीं गुम हो गया दीवारो-दर के दरमियाँ

जगमगाएगा मेरी पहचान बनकर मुद्दतों
एक लम्हा अनगिनत शामो-सहर के दरमियाँ

वार वो करते रहेंगे ज़ख़्म हम खाते रहें
है यही रिश्ता पुराना संगो-सर के दरमियाँ

क्या कहें? हर देखने वाले को आख़िर चुप लगी
गुम था मंज़र इख़्तिलाफ़ाते-नज़र के दरमियाँ

किसकी आहट पर अँधेरे में क़दम बढ़ते रहे
रू नुमा था कौन इस अंधे सफ़र के दरमियाँ

कुछ अँधेरा सा उजाले से गले मिलता हुआ
हमने इक मंज़र बनाया *ख़ैरो-शर के दरमियाँ

बस्तियाँ "मख़्मूर" यूँ उजड़ीं कि सहरा हो गईं
फ़ासले बढ़ने लगे जब घर से घर के दरमियाँ

रमल की मुज़ाहिफ़ शक़्ल
फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलुन
2122 2122 2122 212

*ख़ैरो-शर : भलाई और बुराई,इख़्तिलाफ़ात-मतभेद

ग़ज़ल

ख़्वाब इन जागती आँखों को दिखाने वाला
कौन था वो मेरी नींदों को चुराने वाला

एक खुश्बू मुझे दीवाना बनाने वाली
एक झोंका वो मेरे होश उड़ाने वाला

अब इन *अत्राफ में आता ही नहीं वो मौसम
मेरे बाग़ों में जो था फूल खिलाने वाला

घर तो इस शह्र में जलते हुए देखे सबने
नज़र आया न कोई आग लगाने वाला

तोड़कर कर अपनी हदें ख़ुद से गुज़र जाऊंगा मैं
कोई आए तो मेरा साथ निभाने वाला

तुमने नफ़रत के अँधेरों में मुझे क़ैद किया
मैं उजाला था तुन्हें राह दिखाने वाला

बारिशें ग़म की रुकीं हैं न रुकेंगी मख़्मूर
इन दयारों से ये मौसम नहीं जाने वाला

*अत्राफ - दिशाएँ

रमल की मुज़ाहिफ़ सूरत
फ़ाइलातुन फ़'इ'लातुन फ़'इ'लातुन फ़’इ’लुन
2122 1122 1122 112

ग़ज़ल

इक बार मिलके फिर न कभी उम्र भर मिले
दो अजनबी थे हम जो सरे-राहगुज़र मिले

कुछ मंज़िलों के ख़्वाब थे कुछ रास्ते की धूप
निकले सफ़र पे हम तो यही हमसफ़र मिले

यूँ अपनी सरसरी सी मुलाक़ात ख़ुद से थी
जैसे किसी से कोई सरे-रहगुज़र मिले

इक शख़्स खो गया है जो रस्ते की भीड़ में
उसका पता चले तो कुछ अपनी ख़बर मिले

अपने सफ़र में यूँ तो अकेला हूँ मैं मगर
साया सा एक राह के हर मोड़ पर मिले

बरसों मे घर आजा आये तो बेगाना वार आज
हमसे ख़ुद अपने घर के ही दीवारो-दर मिले

मख़्मूर हम भी रक़्स करें मौजे-गुल के साथ
खुलकर जो हमसे मौसमे-दीवाना ग़र मिले

बहरे-मज़ारे( मुज़ाहिह शक़्ल)
मफ़ऊल फ़ाइलात मुफ़ाईल फ़ाइलुन
221 2121 1221 2 12

मीर के इस शे’र के साथ हम इस अज़ीम शायर खिराजे-अक़ीदत पेश करते हैं-

कहें क्या जो पूछे कोई हम से "मीर"
जहाँ में तुम आए थे, क्या कर चले

मख़्मूर साहब की आवाज़ हमेशा गूँजती रहेगी और ज़िंदा रहेगी-

Saturday, February 27, 2010

होली मुबारक

















उधर से रंग लिए आओ तुम, इधर से हम
गुलाल अबीर मलें मुँह पे होके खुश हर दम
खुशी से बोलें, हँसे , होली खेल कर बाहम

बहुत दिनों से हमें तो तुम्हारे सर की क़सम
इसी उम्मीद में था इन्तज़ार होली का...
नज़ीर अकबराबादी

"आज की ग़ज़ल" की तरफ़ से आप सब को होली मुबारक हो। चंद अशआर आप लोगों की नज़्र हैं-

धर्म क्‍या औ’ जात क्‍या, रूप क्‍या औकात क्‍या
रंग होली का हो बस, इससे बड़ी सौगात क्‍या... तिलक राज कपूर

ला के बाज़ार से रगीन गुलाल इतराएँ
हाथ रुख्सारों पे फिसला के मना लें होली...प्रेमचंद सहजवाला

खेलिए होली ब्लागा’इस्पाट पर
रंग में पड़ने न पाए कोई भंग...अहमद अली बर्की

खुशबू को मु्ट्ठियों में क़ैद करके क्या मिलेगा
है मज़ा जब खुशबुओं में क़ैद होकर तुम दिखाओ...दीपक गुप्ता

दुश्मन भी अपना हो जाए,रंगों में ऐसी ताकत है
आज सभी उन रंगों की हमको यार ज़रुरत है..विलास पंडित"मुसाफ़िर"


रंगों की बौछार तो लाल गुलाल के टीके
बिन अपनों के लेकिन सारे रंग ही फीके...चाँद शुक्ला

तन भिगोया मन भिगोया आत्मा भीगी
प्यार ही पिचकारियों का नाम हो जैसे...चन्द्रभान भारद्वाज

ऐसी चली पुरवाई होली में प्यारे
गूँज उठी शहनाई होली में प्यारे

भाग्य खिला फागुन का खूब मज़े लेकर
मस्ती क्या लहराई होली में प्यारे

गले मिले सब भाई -भाई ही बनकर
धन्य हुई हर माई होली में प्यारे

रंग सभी ए "प्राण" लगें सुन्दर-सुन्दर
पाट दिलों की खाई होली में प्यारे ...प्राण शर्मा

मेरा एक शे’र भी आपकी नज़्र है-

आप दीवारों पे अब छिड़को गुलाल
वो तो ग़ैर अब हो चुका है देखिए...सतपाल ख़याल


अब न तो वो संगी-साथी रहे , न ही बचपन की वो गलियां , वो घर, वो शहर, सब कुछ बदल गया है । पड़ोस में रहने वाले मुझे नहीं जानते और न ही मैं उन्हें। अजीब सा माहौल है आजकल,ऐसे में सुरजीत पात्र का लिखा और हंस राज हंस का गाया..

दूर इक पिंड विच निक्का जिहा घर सी
कच्चियां सी कंधा ओहदा दोहरा जिहा दर सी...

सुनिए ये आपको आपके गांव की गलियों तक ले जाएगा।




Saturday, February 20, 2010

दिनेश ठाकुर की ग़ज़लें











1963 में उदयपुर में जन्में दिनेश ठाकुर आजकल राजस्थान पत्रिका में वरिष्ट सामाचार संपादक हैं। एक ग़ज़ल संग्रह" हम लोग भले हैं कागज़ पर" छाया हो चुका है। फ़िल्म समीक्षक भी रह चुके हैं और पत्र-पत्रिकाओं में छपते रहते हैं। हाल ही में अनुभूति पर इनकी ग़ज़लें शाया हुईं और इनके कुछ शे’रों ने मुझे बहुत प्रभावित किया, सो मेल करके इनसे ग़ज़लें मंगवाईं जो आज आपकी नज़्र करूँगा। पहले इनके कुछ अशआर मुलाहि्ज़ा कीजिए-

गज़ल

जहाँ लफ्ज़ डमरू के किरदार में हैं
सुखन मेरा उस शायरी से अलग है

तेरी याद के जुगनुओं की क़सम
ये बारिश के छींटे शरारे हुए

दुःख की तितली के पंखों पर
बाँधो सुख का धागा लम्बा

ये शे’र अपने आप में एक ताज़गी और नयापन ज़ाहिर कर रहे हैं और ग़ज़ल के लहजे को भी बर्करार रखे हुए है। यही एक सफल शायर की निशानी है कि वो किस तरह ग़ज़ल की नज़ाकत का भी ख़याल रखता है और नए प्रयोग भी कर लेता है। इस नए लहजे के बारे में बशीर बद्र साहब का ये शे’र क़ाबिले-ग़ौर है-

कोई फूल धूप की पत्तियों मे हरे रिबन से बंधा हुआ
वो ग़ज़ल का लहजा नया-नया , न कहा हुआ न सुना हुआ

ग़ज़ल तक़रीबन 800 साल पहले अपने काँधे पर सुराही लेकर हिंदुस्तान में दाख़िल हुई। तब से खुसरो से लेकर मुनव्वर राना तक हर शायर ने इसे अपने रंग में रंगना चाहा। किसी ने इसके हाथ में मशाल थमा दी, किसी ने इसके दुपट्टे को तसव्वुफ़ के रंग में रंग दिया,किसी ने इसे कोठे पे बिठा दिया, कोई मैखाने तक ले गया, किसी ने इसे हिज़्र-मिलन के पाठ पढ़ाए और आज तो ग़ज़ल के मायने ही बदल रहे हैं। ग़ज़ल अब संसद मे नज़र आती है, सड़कों पर नज़र आती है। मुनव्वर राना जैसे शायरों ने इसे माँ के रूप में देखा, बेटी भी कहा और लोगों ने इसे सराहा और क़बूल किया। दुश्यंत ने अपने अंदाज़ में इसे लिया, लेकिन वही शायर सफ़ल हुए जिन्होंने प्रयोग तो किए लेकिन ग़ज़ल के असली रंग-रूप, उसकी नज़ाकत, उसकी कोमलता और उसके ख़ास लहजे को ठेस नहीं पहुँचाई और वो शायर जिन्होंने इसकी आत्मा बदलनी चाही वो सफ़ल नहीं हुए। उदाहरण के तौर पर पानी भले बर्फ़ बन जाए, हवा बन जाए, नदी हो जाए या बादल बनकर बरसे लेकिन रहता पानी ही है, essence of water is not changed ,उसी तरह ग़ज़ल की ये essence ये रूह नहीं बदलनी चाहिए और वो होनी भी नई चाहिए। जिसे लोग पढ़कर ही कहें कि ये फ़लां शायर की है।

मेरी ग़ज़ल को मेरी ग़ज़ल होना चाहिए
तालाब में मिस्ले-कंवल होना चाहिए
..मुनव्वर राना

ग़ज़ल में ये नयापन लाना बहुत कठिन है। इस बात को मुनव्वर साहब के ये शे’र देखें कैसे बयान करता है-

बहुत दुश्वार है प्यारे ग़ज़ल में नादिराकारी
ज़रा सी भूल अच्छे शे’र को *मोहमल बनाती है


* (निरर्थक) *नादिराकारी- art of perfection

अब दिनेश ठाकुर की ये ग़ज़ल बहरे-खफ़ीफ़ की मुज़ाहिफ़ शक्ल में

हम यूँ महदूद हो लिये घर में
हँस लिये घर में, रो लिये घर में

जाने किस फूल की तमन्ना थी
ख़ार ही ख़ार बो लिये घर में

जिससे हासिल सबक़ करें बच्चे
इस सलीक़े से बोलिए घर में

वो समझते हैं दिन अमन के हैं
एक मुद्दत जो सो लिये घर में

चारागर पूछता सबब जिनके
हमने वो ज़ख़्म धो लिये घर में

*महदूद-सीमित

मैं तो समझता हूँ कि हम ग़ज़ल की नींव नहीं बदल सकते लेकिन ऊपर मकान अपने ढंग से बना सकते हैं। नींव जितनी अच्छी होगी मकान मज़बूत होगा जैसे लता मंगेशकर गाए भले पाप लेकिन उनका क्लासिकल बेस उस पाप को बेमिसाल बना देता है ऐसा ही शायर के साथ भी है। बिना क्लासिकल पढ़े-सुने कोई शायर थोड़े बन सकता है। गा़लिबो-मीर को जाने समझे बिना शायर होना बेसुरा गायक होने जैसा है। मैनें जब द्विज जी को अपने ये शे’र सुनाए-

नाती-पोतों ने ज़िद्द की तो
अम्मा का संदूक खुला है

घर में हाल बजुर्गों का अब
पीतल के वर्तन जैसा है

तो उन्होंने कहा अब तुम निकले अपने खोल के बाहर । इसी नयेपन की ज़रूरत है लेकिन..essence of ghazal should not change ये एक शर्त है। बशीर साहब ने भी चेताया है-

शबनमी लहजा है आहिस्ता ग़ज़ल पढ़ना
तितली की कहानी है फूलों की ज़बानी है

शायरी में दोहराव भी बहुत है जिसकी वज़ह से कई बार ऊब भी पैदा होती है । बहुत कुछ कहा जा चुका है और उसी बहुत कुछ कहे हुए को फिर से कहना है । शायद इसीलिए नए लहजे की ज़रूरत ज़्यादा है। एक ही बात को ज़रा से फ़ेर कह देने का चलन बहुत है -

न जाने कौन सी मज़बूरियों का क़ैदी हो,
वो साथ छोड़ गया है तो बेवफ़ा न कहो..राहत इंदौरी

कुछ तो मजबूरियाँ रही होंगी
यूँ कोई बेवफ़ा नहीं होता..बशीर बद्र

जिन्हें तुम ने समझा मेरी बेवफ़ाई
मेरी ज़िन्दगी की वो मज़बूरियां थीं..आनंद बख़्शी

(ये बहुत बड़े शायर है और शायरी का मान हैं ये शे’र खाली हम जैसे नए शायरों के समझने के लिए हैं)

दिनेश ठाकुर की एक और ग़ज़ल बहरे-खफ़ीफ़ की मुज़ाहिफ़ शक्ल में

यूँ जो वादों से पेट भर जाते
हम तो बदहजमियों से मर जाते.

सबने चेहरे बदल लिये वरना
आदमी आदमी से डर जाते.

काम-धंधे से लग गए ज़ाहिद
हम न होते तो ये किधर जाते.

ख़ुशख़रामी भी रास आ जाती
आप सच बोलकर मुकर जाते.

सबके सब हम पे धर दिए क्योंकर
कुछ तो इल्ज़ाम उसके सर जाते.

हमसुबू कब गए पता ही नहीं
तू उठाता तो हम भी घर जाते

*ख़ुशख़रामी-खूबसूरत चाल *हमसुबू- एक सुराही से पीने वाले

शायरी में दोहराव से तंग आकर द्विज जी का ये शे’र देखें क्या कहता है-

झूमती, लड़खड़ाती ग़ज़ल मत कहो
अब कहो ठोकरों से सं‘भलती ग़ज़ल


ये देखिए ताज़गी और नयेपन का नमूना बशीर बद्र साहब का शे’र-

ज़हन में तितलियां उड़ रहीं थी बहुत
कोई धागा नहीं बाँधने के लिए

यक़ीनन ख़यालात तो सबके एक जैसे ही हैं और हमारे एहसास भी एक जैसे, द्विज जी ने एक दिन बताया कि..

what you said is not important but how beautifully we said it, how beautifully we express it, how diffrently we explain it, is something which is very important in poetry.

वो ग़ज़ल पढ़ने में लगता भी ग़ज़ल जैसा था
सिर्फ़ ग़ज़लें ही नहीं लहजा भी ग़ज़ल जैसा था..
मुनव्वर राना

दिनेश ठाकुर की एक और ग़ज़ल( ७ फ़ेलुन+ १ फ़े)

पनघट, दरिया कैसे हैं, वो खेत, वो दाने कैसे हैं
रब जाने अब गाँव में मेरे यार पुराने कैसे हैं

जिसको छूकर सब हमजोली झूठी क़समें खाते थे
अब वो पीपल कैसा है, वो लोग स्याने कैसे हैं

छिप-छिपकर तकते थे जिसको अब वो दुल्हन कैसी है
सास, ससुर, भौजी, नंदों के मीठे ताने कैसे हैं

पहली-पहली बारिश में हर आँगन महका करता था
छज्जों का टप-टप करना, वो दौर सुहाने कैसे हैं

रोज़ सुबह इक परदेसी का संदेशा ले आती थी
उस कोयल की चोंच मढ़ाने के अफ़साने कैसे हैं

दिन भर जलकर और जलाकर सूरज का वो ढल जाना
शाम की ठंडी तासींरे, चौपाल के गाने कैसे हैं

परबत वाले मंदिर पे क्या अब भी मेला भरता है
घर से बाहर फिरने के सद शोख़ बहाने कैसे है

यक़ीनन जिस नयेपन और ताज़गी की हम बात करते हैं दिनेश ठाकुर की ये ग़ज़लें उसका प्रमाण हैं। मुनव्वर साहब के इस शे’र के साथ इस चर्चा को विराम देते हैं-

बेसदा ग़ज़लें न लिख वीरान राहों की तरह
खामुशी अच्छी नहीं आहों कराहों की तरह

Sunday, February 14, 2010

अंसार क़ंबरी-ग़ज़ल और परिचय











1950 में कानपुर में जन्में अंसार क़ंबरी देश के माने हुए शायर हैं और अपने दोहों के लिए भी चर्चित हैं। एक ग़ज़ल संग्रह "सलीबों के क़रीब" भी छाया हो चुका है और उनके दोहों की किताब भी छाया हो चुकी है। बात चल रही थी हिंदी मीटर की तो सोचा क्यों न इसी मीटर की ग़ज़ल पेश की जाए तो लीजिए पहले अंसारी साहब की इसी मीटर में कही ग़ज़ल मुलाहिज़ा कीजिए-

ग़ज़ल

धूप का जंगल, नंगे पाँव इक बंजारा करता क्या
रेत का दरिया, रेत के झरने प्यास का मारा करता क्या

बादल-बादल आग लगी थी छाया तरसे छाया को
पत्ता-पत्ता सूख चुका था पेड़ बेचारा करता क्या

सब उसके आंगन में अपनी राम कहानी कहते थे
बोल नहीं सकता था कुछ भी घर-चौबारा करता क्या

तुमने चाहे चाँद-सितारे हमको मोती लाने थे
हम दोनों की राह अलग थी साथ तुम्हारा करता क्या

ये है तेरी और न मेरी दुनिया आनी-जानी है
तेरा-मेरा, इसका-उसका फिर बँटवारा करता क्या

टूट गए जो बंधन सारे और किनारे छूट गए
बीच भँवर में मैनें उसका नाम पुकारा करता क्या

अब इस ग़ज़ल के बाद मैं श्री चंद्रभान भारद्वाज जी की टिप्पणी का उल्लेख ज़रूरी समझता हूँ-

"सतपाल जी,यदि गज़ल बहर में नही है पर मात्रिक छंद के अनुसार है, तो सही है इससे सहमत नही हुआ जा सकता। असल में हिन्दी काव्य में गज़ल विधा ही नही है। अतः जिस भाषा के काव्य से गज़ल आई है उसे यदि हिन्दी में अपनाना है तो उसके नियमों का पालन करना नितान्त आवश्यक है चूंकि गज़ल में बहर की मुख्य भूमिका होती है अतः उसे बहर में रखना आवश्यक है। अपनॆ जिस शेर का उदाहरण दिया है उससे भी स्पष्ट है कि ज़रा से हेरफेर से लय अवरुद्ध हो जाती है।"

अब इन्होंने बात पते की कही और सही भी। मैं भी इसी पक्ष में हूँ और बहर का ही पालन करता हूँ और ऐसा करने का ही मशविरा देता हूँ लेकिन जब आर.पी शर्मा जी जैसे विद्वान इसे सही कहते हैं तो हम अपनी राय को झोले में डाल लेते हैं । चंद्रभान भारद्वाज जी की इस टिप्प्णी को हम इस बहस का हासिल मान सकते हैं और बाक़ई ये भाषाई झगड़े कभी ख़त्म होने वाले नहीं और इसे अंसारी साहब के इस शे’र के साथ विराम देते हैं-

जो हम लड़ते रहे भाषा को लेकर
कोई ग़ालिब न तुलसीदास होगा

और मीर साहब की इसी हिंदी मीटर में कही ग़ज़ल
पत्ता-पत्ता, बूटा-बूटा हाल हमार जाने है..को मेंहदी हसन जी की आवाज़ में सुनते हैं-

Monday, February 8, 2010

मात्रिक छंद और बहर

चलिए आज बात करते हैं क़तील शिफ़ाई साहब की। इनका वास्तविक नाम औरंगज़ेब खान था और क़तील इनका तखल्लुस और शिफ़ाई इनके उस्ताद शिफ़ा से प्रेरित है। इस नाम से हर कोई वाकि़फ़ है और क़तील साहब ने हिंदी मीटर में काफ़ी ग़ज़लें कही। जैसा कि हमने पिछली पोस्ट में भी ज़िक्र किया ,ये बड़ा पेचीदा विषय है लेकिन दिलचस्प भी। उर्दू बहरों के अनुरूप हिंदी के कई छंद हैं ।बात शुरू करते हैं बहरे-मुतका़रिब की मुज़ाहिफ़(modofied) शक़्ल से- मुज़ाहिफ़ शक़्लों के अपने-अपने नाम हैं जो याद रखने मुशकिल हैं। उससे कुछ ज़्याद फ़र्क़ नहीं पड़ता। ये मुज़ाहिफ़ शक़्ल बहरे-मुतदारिक में भी रिपीट होती है। ये मुज़ाहिफ़ शक़्ल है-

बहरे-मुतकारिब की मुज़ाहिफ़ शक़्ल-
15 फ़ेलुऩ
22 22 22 22 22 22 22 2

इसका एक उदाहरण-

तुम पूछो और मैं न बताऊँ ऐसे तो हालात नहीं
एक ज़रा सा दिल टूटा है और तो कोई बात नहीं

अब किस एक गुरू(फ़ेलुन) के स्थान पर दो लघु(फ़’इ’लुन) आने हैं इसके भी नियम हैं जिनका सख़्ताई से पालन नहीं होता । अमूमन पहले और अंतिम गुरू(फ़ेलुन) को छोड़कर बीच का कोई गुरू दो लघुओं से रिपलेस कर लिया जाता है जैसे कि इस उदाहरण मे-
तुम पूछो और मैं न बताऊँ ऐसे तो हालात नहीं
S SS S S । ।S SS SS S S। । S
एक ज़रा सा दिल टूटा है और तो कोई बात नहीं
S | | S S S S S S S| | S S S| | S

पहले मिसरे में छटे स्थान पर १४ वें स्थान पर, दूसरे में दूसरे, दसवें और १४ वें स्थान का गुरू दो लघुओं से रिपलेस हुआ। ( हिंदी मे स्थानों की गिनती और होगी)सो ये दूसरी ग़ज़लों में कुछ और हो सकता है । अमूमन पहले और अंतिम स्थान पर गुरू का प्रयोग होता है। अब बात करते हैं मात्रिक छंद की -

तुम पूछो और मैं न बताऊँ ऐसे तो हालात नहीं
S SS S S । ।S SS SS S S। । S = 30 मात्राएँ

एक ज़रा सा दिल टूटा है और तो कोई बात नहीं
S | | S S S S S S S| | S S S| | S = 30 मात्राएँ

कुछ शायर बहर(फ़ेलुन) की इस तरकीब को नहीं निभाते बस मात्रा गिनकर ग़ज़ल का हिंदीकरण कर देते हैं और इसे मात्रिक छंद बता देते हैं। मैनें इसी विषय पर आर.पी शर्मा जी से भी बात की । मैनें उनसे ये पूछा कि छंद या बहर लय के लिए ही बने हैं । आपको इन दो प्रकारों में "मात्रिक और बहर अनुरूप" किस रूप में लगता है कि लय बेहतर है तो उन्होंने कहा कि बहर में तो लय शत-प्रतिशत सुनिश्चित ही है लेकिन अगर ग़ज़ल मात्रिक है तो भी सही है मुझे मेरा जवाब मिल गया और आइए अब एक काम करते हैं-

एक ज़रा सा दिल टूटा है और तो कोई बात नहीं

इस मिसरे में थोड़ा सा हेर-फ़ेर करते हैं फ़िर देखते हैं कि लय पर क्या असर पड़ता है-

इस मिसरे को यूँ कर देते हैं-

ज़रा एक ये दिल टूटा है और तो कोई बात नहीं

अब पूरा शे’र इसी रूप में-

तुम पूछो और मैं न बताऊँ ऐसे तो हालात नहीं
ज़रा एक ये दिल टूटा है और तो कोई बात नहीं

और अब इसे पढ़िए-

तुम पूछो और मैं न बताऊँ ऐसे तो हालात नहीं
एक ज़रा सा दिल टूटा है और तो कोई बात नहीं


फ़र्क़ आपके सामने है। मात्राएँ दोनों तरह ३० ही हैं लेकिन लय बिगड़ गई। क्योंकि बहर के अनुरूप पहला शे’र नहीं है। क़तील साहब ने इस मीटर में कई ग़ज़लें कहीं और इसे अमूमन हिंदी मीटर या मीर का मीटर भी कह लेते हैं। इस मीटर में जो लय है वो दूसरी बहरों में नहीं, बहुत आनंद आता है इस मीटर में लिखी ग़ज़लों को पढ़कर । जब मात्रिक छंदों के लिहाज़ से बात करते हैं तो मुफ़ाईलुन(1222)और फ़ाइलातुन (2122) में कोई फ़र्क नहीं मिलता दोनों की मात्राओं की गिनती एक जैसी है और बहर के लिहाज़ से ज़मीन आसमान का फ़र्क़ पड़ जाता है। अगर हम छंद के हिसाब से भी लिखें तो उस छंद के कायदे-क़ानून का तो पालन करें और कम से कम मात्रिक छंदों में मात्रा तो न गिराएँ। अगर मात्रिक छंद मे मात्रा को ही गिरा दिया तो फिर क्या फ़ायदा। जिस छंद में लिख रहे हैं उसका पालन तो कर लें।

उदाहरण के लिए-

बहरे-मुतकारिब

फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन

हिंदी में में इससे मिलता-जुलता भुजंगपयात के वर्ण वृत प्रति चरण चार रगण(।SS) और मात्रिक के हिसाब से प्रति चरण बीस मात्राएँ और मात्रिक रूप में भी ये शर्त है कि पहली, छठी,ग्यारवीं और सोलवीं मात्रा लघु हो। अब कम से कम इस शर्त को तो हम मान लें और अगर हम वर्ण व्रुतों में लिखें फिर तो झगड़ा ही ख़त्म हो जाता है। आखिर ये बहर-विज्ञान भी तो संस्कृत से ही निकला है। थोड़ी सी मेहनत तो लाज़िमी है ही। सारी बहरें हर शायर के अवचेतन मन में होती हैं ,जब थोड़ा ज्ञान हो जाता है तो पता चल जाता है कि ये मिसरा जो मैं गुनगुना रहा था ये तो फ़लां बहर में है।
और द्विज जी ने एक बार समझाया था कि बहर तो खाल या साँचे की की तरह होती है और शब्द उसमें ठूसा जाने वाला भूसा मात्र है, शब्द टूट सकते हैं( कबीरा , कबिरा हो सकता है) लेकिन लय/बहर नहीं। बहर सही में आत्मा है और शब्द शरीर।इस लिंक को ज़रूर पढ़े बहुत महत्वपूर्ण लिंक है-
http://www.abhivyakti-hindi.org/rachanaprasang/2005/ghazal/ghazal10.htm

ये मेरा निजी विचार है कि अगर हम बहरों को ज्यूँ का त्यूँ स्वीकार कर लें और उर्दू के तय नियमों को मानकर देवनागरी में लिखें तो ज़्यादा अच्छा है जो कई शायर कर भी रहे हैं और जिस भाषा का दामन जितना बड़ा होता है वो उतनी अमीर होती है। ये बहर-विज्ञान स्वीकार कर लेने में किसी के अहम को ठेस नहीं पहुँचनी चाहिए। एक भाषा दूसरी भाषा से सीखती है और अमीर होती है। और मैं तो ये मानता हूँ कि हिंदी और उर्दू भारत की भाषाएँ हैं और रहेंगी।

लिपट जाता हूँ माँ से और मौसी मुस्कुराती है
मैं उर्दू में ग़ज़ल कहता हूँ हिन्दी मुस्कुराती है

यही हमारी तहजीब है जो आज भी हम सब को बांधे हुए है।

हाँ बात तो क़तील साहब से शुरू हुई थी । क़तील साहब का जन्म पाकिस्तान में १९१९ में हुआ और उनके गीत ग़ज़ल बड़े-बड़े गायकों ने गाए और फ़िल्मों में भी उन्होंने कई गीत लिखे। जगजीत- चित्रा नें भी कई ग़ज़लें गाईं। २००१ में वो चल बसे । उन्होंने हिंदी मीटर में कई गज़लें कहीं। उनमें से दो ग़ज़लें मुलाहिज़ा कीजिए-

एक

मैनें पूछा पहला पत्थर मुझ पर कौन उठायेगा
आई इक आवाज़ कि तू जिसका मोहसिन कहलायेगा

पूछ सके तो पूछे कोई रूठ के जाने वालों से
रोशनियों को मेरे घर का रस्ता कौन बतायेगा

लोगो मेरे साथ चलो तुम जो कुछ है वो आगे है
पीछे मुड़ कर देखने वाला पत्थर का हो जायेगा

दिन में हँसकर मिलने वाले चेहरे साफ़ बताते हैं
एक भयानक सपना मुझको सारी रात डरायेगा

मेरे बाद वफ़ा का धोखा और किसी से मत करना
गाली देगी दुनिया तुझको सर मेरा झुक जायेगा

सूख गई जब इन आँखों में प्यार की नीली झील "क़तील"
तेरे दर्द का ज़र्द समन्दर काहे शोर मचायेगा

दो

हिज्र की पहली शाम के साये दूर उफ़क़ तक छाये थे
हम जब उसके शहर से निकले सब रस्ते सँवलाये थे

जाने वो क्या सोच रहा था अपने दिल में सारी रात
प्यार की बातें करते करते नैन उस के भर आये थे

उसने कितने प्यार से अपना कुफ़्र दिया नज़राने में
हम अपने ईमान का सौदा जिससे करने आये थे

कैसे जाती मेरे बदन से बीते लम्हों की ख़ुश्बू
ख़्वाबों की उस बस्ती में कुछ फूल मेरे हम-साये थे

कैसा प्यारा मंज़र था जब देख के अपने साथी को
पेड़ पे बैठी इक चिड़िया ने अपने पर फैलाये थे

रुख़्सत के दिन भीगी आँखों उसका कहना हाए "क़तील"
तुम को लौट ही जाना था तो इस नगरी क्यूँ आये थे

जाते-जाते मुन्नी बेगम की आवाज़ में क़तील शिफ़ाई साहब की ये ग़ज़ल ज़रूर सुनें-
तुम पूछो और मैं न बताऊँ ऐसे तो हालात नहीं
एक ज़रा सा दिल टूटा है और तो कोई बात नहीं

ग़ज़ल लेखन के बारे में आनलाइन किताबें -

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Thursday, February 4, 2010

देवमणि पाण्डेय की ग़ज़लें














देवमणि पाण्डेय जी का 4 जून 1958 को अवध की माटी में जन्म हुआ। हिंदी और संस्कृत के सहज साधक हैं और आप कवि तो हैं ही मंच संचालन के महारथी भी हैं। सुगम संगीत से लेकर शास्त्रीय संगीत के कार्यक्रमों का सहज-संचालन करते हैं। दो कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं - दिल की बातें और खुशबू की लकीरें। इन्होंने पिंजर, हासिल और कहाँ हो तुम जैसी कई फिल्मों के लिए गीत लिखेहैं। पिंजर के बहु चर्चित गीत "चरखा चलाती माँ" को साल 2003 के लिए बेस्ट लिरिक ऑफ दि इयर का अवार्ड मिला है। फिलहाल मुंबई में भारत सरकार के श्रमिक हैं।

सबसे पहले इनकी ग़ज़ल-

चमन को फूल घटाओं को इक नदी मिलती
हमें भी काश कभी अपनी ज़िंदगी मिलती

..सुनते हैं। गायक हैं राज कुमार रिज़वी-



अब ये ग़ज़ल आपकी नज़्र है-

खिली धूप में हूँ, उजालों में गुम हूँ
अभी मैं किसी के ख़्यालों में गुम हूँ

कहाँ जाके ठहरेगी दुनिया हवस की
नए दौर के इन सवालों में गुम हूँ

दिखाएं जो इक दिन सही राह सबको
मैं नेकी के ऐसे हवालों में गुम हूँ

मेरे दौर में भी हैं चाहत के क़िस्से
मगर मैं पुरानी मिसालों में गुम हूँ

मेरे दोस्तों की मेहरबानियाँ हैं
कि मैं जो सियासत की चालों में गुम हूँ

मेरी फ़िक्र परवाज़ करके रहेगी
भले मैं किताबों, रिसालों में गुम हूँ

मुत़कारिब(122x4) मसम्मन सालिम

दूसरी ग़ज़ल से पहले मैं कुछ चर्चा करना चाहता हूँ। आज जो ग़ज़ल लिखी या कही जा रही है वो दो हिस्सों में विभाजित होती नज़र आ रही है। एक , जो उर्दू बहरों के अनुरूप कही जा रही है जो बहरों के नियम-क़ानून का पालन करती है लेकिन लिखी देवनागरी में जा रही है और दूसरी जो देवनागरी में लिखी जा रही है,जो हिंदी के छंदों के अनुरूप कही जा रही है जिसमें शायर ज़्यादातर मात्रिक छंदों से काम लेता और मात्राओं की गणना करके ग़ज़ल पूरी कर लेता है और अब हिंदी और उर्दू दोनों में दोनों तरह से ग़ज़ल कही जा रही है। आज श्री आर. पी शर्मा जी ने बताया कि उर्दू के शायर अज़मतुल्ला खां ने मात्रिक छंदों में काफ़ी ग़ज़लें कही जो सराही भी गाईं।

अब मैं ये बात कहना चाहता हूँ कि जो ग़ज़ल बहर के अनुरूप होती है उसकी लय तो सुनिश्चित ही होती हैं क्योंकि लघु-गुरू की तरकीब इनमें बदलती नहीं। दोनों मिसरों में एक जैसी रहती है लेकिन जब हम ग़ज़ल कहने के लिए मात्रिक छंद का चुनाव करते हैं तो लय उतनी सुनिश्चित नहीं होती जितनी बहर में होती है और हाँ तीसरी बात वार्णिक छंदों और बहर में काफ़ी समानता है लेकिन शायर वार्णिक छंदों का इस्तेमाल नही करते क्योंकि काम थोड़ा मुश्किल हो जाता है जैसा कि बहर में लिखते वक़्त होता है। मीर ने भी हिंदी मीटर का प्रयोग किया जिसे आज हम अमूमन मीर का मीटर भी कह लेते हैं। मैं दोनों पक्षों का हिमायती हूँ लेकिन मेरा झुकाव ज़्यादा ग़ज़ल को बहर के अनुरूप कहने का है जिसे मैं मात्रिक ग़ज़ल से ज़्यादा लययुक़्त मानता हूँ।

इस पूरे विषय पर श्री आर. पी शर्मा का ये लेख ज़रूर पढ़ लें...

http://www.abhivyakti-hindi.org/rachanaprasang/2005/ghazal/ghazal04.htm

अब ये ग़ज़ल जिसे पांडेय जी ने मात्रिक छंद में कहा है पेश है( प्रत्येक चरण ३० मात्रा)

ख़्वाब सुहाने दिल को घायल कर जाते हैं कभी कभी
अश्कों से आँखों के प्याले भर जाते हैं कभी कभी

मेरे शहर में मिल जाते हैं ऐसे भी कुछ दीवाने
रातों-दिन सड़कों पर भटकें घर जाते हैं कभी कभी

पल पल इनके साथ रहो तुम इन्हें अकेला मत छोड़ो
अपने साए से भी बच्चे डर जाते हैं कभी कभी

खेतों को चिड़ियां चुग जातीं बीते कल की बात हुई
अब तो मौसम भी फ़सलों को चर जाते हैं कभी कभी

आँख मूँदकर यार किसी पर कभी भरोसा मत करना
अपने दोस्त भी सर पे तोहमत धर जाते हैं कभी कभी

अगर किसी पर दिल आ जाए इसमें दिल का दोष नहीं
अच्छा चेहरा देखके हम भी मर जाते हैं कभी कभी

जिनके फ़न को दुनिया अकसर अनदेखा कर देती है
ऐसे लोग जहाँ को रोशन कर जाते हैं कभी कभी

न पीने की आदत हमको न परहेज़ है पीने से
हम भी जाते हैं मयख़ाने पर जाते हैं कभी कभी

अब दिमाग़ों की ताज़गी के लिए देव मणि साहब की ग़ज़ल

जब तलक रतजगा नहीं चलता
इश्क क्या है पता नहीं चलता

एक बार फिर राज कुमार रिज़वी की आवाज़ में-

Tuesday, February 2, 2010

गुज़रे वक़्त की बातें

















वक़्त कैसे बीत जाता है पता ही नहीं चलता। ऐसा लगता है कि हम जैसे किसी पुल की तरह खड़े रहते हैं और वक़्त गाड़ियों की तरह निरंतर गुज़रता रहता है। जब द्विज जी से मिला था कालेज में उस वक़्त मेरी उम्र १८-१९ साल की थी और मैं पंजाबी में कविता लिखता था और शिव कुमार बटालवी का भक्त था जो आज भी हूँ लेकिन ग़ज़ल की तरफ़ रुझान द्विज जी की वज़ह से हुआ और ये ग़ज़ल जो आज हम प्रस्तुत कर रहे हैं द्विज जी ने तभी कही थी । वो कालेज का समय, वो उम्र, वो बे-फ़िक्री कभी लौट कर नहीं आती लेकिन मन हमेशा गुज़रे हुए वक़्त को छाती से ऐसे लगा के रखता है जैसे कोई मादा बांदर अपने मरे हुए बच्चे को छाती से लगा के घूमती हो जिसे ये विशवास ही नहीं होता कि ये बच्चा मर चुका है।

लीजिए द्विज जी की ग़ज़ल मुलाहिज़ा फ़रमाइए-

हमने देखी भाली धूप
उजली, पीली, काली धूप

अपना हर कोना सीला
उनकी डाली-डाली धूप

अम्बर-सा उनका सूरज
अपनी सिमटी थाली धूप

बर्फ़-घरों में तो हमको
लगती है अब गाली धूप

मछली जैसे फिसली है
हमने जब भी सम्हाली धूप

पास इसे अपने रख लो
ये लो अपनी जाली धूप

शिव कुमार बटालवी का ज़िक्र हुआ है तो क्यों न आसा सिंह मस्ताना की आवाज़ में शिव की ये ग़ज़ल-

मैनूँ तेरा शबाब लै बैठा
रंग गोरा गुलाब लै बैठा
किंनी बीती ते किंनी बाकी ए
मैनूँ एहो हिसाब लै बैठा..

सुनी जाए-


Sunday, January 24, 2010

मराठी ग़ज़लकार- प्रदीप निफाडकर













" की ग़ज़ल" की पहुँच अब धीरे-धीरे बढ़ रही है और मुझे खुशी है कि अब हम सीधे ग़ज़लकारों से जुड़ रहे हैं । इसका उदाहरण हैं प्रदीप निफाडकर जो मराठी ग़ज़लकार हैं और ब्लाग के प्रशंसक भी। एक मराठी ग़जलकार तक ब्लाग पहुँचना मायने रखता है । इस मंच से हम किसी को कुछ सीखाने की मंशा नहीं रखते और शायरी हुनर ही ऐसा है कि सीखने से नहीं आता । बस ये एक प्रयास है इस फ़न को जानने का,जो धीरे -धीरे सफ़ल हो रहा है।

1962 में जन्में प्रदीप निफाडकर जी का काव्य संग्रह छाया हो चुका है और एक मराठी ग़ज़ल संग्रह जल्द आ रहा है और आप कई साहित्यक सम्मान हासिल कर चुके हैं। शायरी का तर्जुमा बड़ा मुशकिल काम है लेकिन इसे निदा फ़ाज़ली साहब ने और आसिफ़ सय्यद ने किया है जो यक़ीनन क़ाबिले-तारीफ़ है। ये लीजिए दो ग़ज़लें-

एक

याद आई दिया जब जलाया
लौ की सूरत समय थर-थराया

खुशबू आती है शब्दों से मेरे
तेरी आवाज़ का जैसे साया

चाँदनी थी मेरे पीछे-पीछे
कैसे सूरज ने मुझको सताया

जो हुआ सो हुआ सोचकर ये
हमने माज़ी को अपने भुलाया

हमको जिस पल गिला था समय से
वो ही पल लौटकर फिर न आया

हो तुझे जीत अपनी मुबारक
अपनी बाज़ी तो मैं हार आया

मराठी से उर्दू तर्जुमा- निदा फ़ाज़ली
बहरे- मुतदारिक की मुज़ाहिफ़ शक्ल
फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़े)

दो

हर महफ़िल में मिलती रहती मेरी बेटी
हर बेटी में मुझको दिखती मेरी बेटी

अम्मी-अब्बू कितने अच्छे मुझको मिले हैं
सखियों से यूँ कहती रहती मेरी बेटी

सुस्त रवी अपना लेती हैं तेज़ हवाएँ
झूले पर जब बैठी रहती मेरी बेटी

सजती है न सँवरती है फिर भी देखो तो
परियों जैसी सुंदर लगती मेरी बेटी

मेरे सर से कर्ज़ के बोझ को हल्का करने
बेटे जैसे मेहनत करती मेरी बेटी

घर आने में जब होती है देर मुझे तो
अम्मी के संग जागती रहती मेरी बेटी

मुझको एक ग़ज़ल जैसी वो लगती है तब
गोद में जब मेरी है सिमटती मेरी बेटी

याद आता है मेरी अम्मी ऐसी ही थी
जब-जब मेरी आँख पोंछती मेरी बेटी

उसको लेने शहज़ादे तुम देर से आना
मुझको अभी बच्ची है लगती मेरी बेटी

मराठी से उर्दू तर्जुमा - आसिफ़ सय्यद
छ: फ़ेलुन

Tuesday, January 19, 2010

राहत इन्दौरी साहब और अंजुम रहबर
























राहत साहब किसी परिचय के मोहताज़ नहीं हैं। राहत साहब ने एक जनवरी को जीवन के साठ वर्ष पूरे किए हैं। इसी महीने रामकथा वाचक मुरारी बापू ने राहत इंदौरी साहब के गजल संग्रह ‘नाराज’ के हिन्दी संस्करण का विमोचन करते हुए कहा-

राम वही है, जो राहत दे
जो आहत करता है, वह रावण होता है

यही वो मिली-जुली तहजीब है जिसका परिचय राहत साहब और मुरारी बापु ने दिया है।

देव मणि पांडेय जी की बदौलत ये दो ग़ज़लें हमें मिली हैं जो राहत साहब ने ही उन्हें भेजी हैं और इनको राहत साहब की अनुमति से यहाँ छापा जा रहा है। पहली ग़ज़ल बिल्कुल ताज़ा है और आज की ग़ज़ल पर पहली दफ़ा छाया हो रही है। इसके इस शे’र को लेकर कल द्विज जी से भी बात हुई और राहत साहब से भी पहले शे’र देखें-

कौन छाने लुगात का दरिया
आप का एक इक्तेबास बहुत

कौन देखे शब्दकोश, कौन जाए गहराई में जो आपने कह दिया,जो ख़ुदा ने कह दिया, जो भगवान ने कह दिया, जो उन्होंने quote कर दिया वो हर्फ़े-आख़िर है। हम चाहें भी तो उनके कहे के माअनी नहीं समझ सकते। राहत साहब ने जैसे कहा कि धार्मिक-ग्रंथों में बहुत से हर्फ़ अब तक लोग समझ नहीं पाए हैं लेकिन वो ख़ुदा के, भगवान के शब्द हैं उन्हें सुनना,पढ़ना ही काफ़ी है । एक शे’र कई आयाम समेटे होता है और पाठक उसके अर्थ जुदा-जुदा ले सकता है। यक़ीनन ये शे’र राहत साहब जैसे शायर ही कह सकते हैं और हम भी अब ये कह सकते हैं कि अगर राहत साहब ने कहा है तो हर्फ़े-आखिर है उसके लिए हमें बहस या शब्द-कोश देखने कि ज़रूरत नहीं। इक्तेबास यानि किसी वाक्या को ज्यूँ का त्यूँ बिना किसी बहस के स्वीकार कर लेना है। हिंदी में इसे उद्वरण कह सकते हैं।

आज की ग़ज़ल को राहत साहब भी देखेंगे । आज की ग़ज़ल का जो मक़सद था वो पूरा हो रहा है और ये ब्लाग इन महान शायरों तक पहुँच रहा है जो निसंदेह खुशी की बात है। ग़ज़लें मुलाहिज़ा कीजिए-

ग़ज़ल

एक दिन देखकर उदास बहुत
आ गए थे वो मेरे पास बहुत

ख़ुद से मैं कुछ दिनों से मिल न सका
लोग रहते हैं आस-पास बहुत

अब गिरेबां बा-दस्त हो जाओ
कर चुके उनसे इल्तेमास बहुत

किसने लिक्खा था शहर का नोहा
लोग पढ़कर हुए उदास बहुत

अब कहाँ हमसे पीने वाले रहे
एक टेबल पे इक गिलास बहुत

तेरे इक ग़म ने रेज़ा-रेज़ा किया
वर्ना हम भी थे ग़म-शनास बहुत

कौन छाने लुगात का दरिया
आप का एक इक्तेबास बहुत

ज़ख़्म की ओढ़नी लहू की कमीज़
तन सलामत रहे लिबास बहुत

इक्तेबास-quote,लुगात-शब्दकोश,इल्तेमास-गुज़ारिश

बहरे-खफ़ीफ़ की मुज़ाहिफ़ शक़्ल
फ़ा’इ’ला’तुन मु’फ़ा’इ’लुन फ़ा’लुन
2122 1212 22/112

दो

हरेक चहरे को ज़ख़्मों का आइना न कहो
ये ज़िंदगी तो है रहमत इसे सज़ा न कहो

न जाने कौन सी मजबूरियों का क़ैदी हो
वो साथ छोड़ गया है तो बेवफ़ा न कहो

तमाम शहर ने नेज़ों पे क्यों उछाला मुझे
ये इत्तेफ़ाक़ था तुम इसको हादिसा न कहो

ये और बात के दुशमन हुआ है आज मगर
वो मेरा दोस्त था कल तक उसे बुरा न कहो

हमारे ऐब हमें ऊँगलियों पे गिनवाओ
हमारी पीठ के पीछे हमें बुरा न कहो

मैं वाक़यात की ज़ंजीर का नहीं कायल
मुझे भी अपने गुनाहो का सिलसिला न कहो

ये शहर वो है जहाँ राक्षस भी हैं राहत
हर इक तराशे हुए बुत को देवता न कहो

बहरे-मुजतस की मुज़ाहिफ़ शक्ल-
म'फ़ा'इ'लुन फ़'इ'लातुन म'फ़ा'इ'लुन फ़ा'लुन
1212 1122 1212 22/ 112


और जगजीत सिंह की आवाज़ में राहत साहब की एक ग़ज़ल सुनिए-









और अब बात करते हैं श्री मति अंजुम रहबर कि जो राहत इन्दौरी साहब की पत्नी हैं और बहुत अच्छी शाइरा भी हैं। उनकी इस ग़ज़ल से तो सारी दुनिया वाकिफ़ है। आप भी पढ़िए-

अंजुम रहबर

सच बात मान लीजिये चेहरे पे धूल है
इल्ज़ाम आईनों पे लगाना फ़िज़ूल है.

तेरी नवाज़िशें हों तो कांटा भी फूल है
ग़म भी मुझे क़बूल, खुशी भी क़बूल है

उस पार अब तो कोई तेरा मुन्तज़िर नहीं
कच्चे घड़े पे तैर के जाना फ़िज़ूल है

जब भी मिला है ज़ख्म का तोहफ़ा दिया मुझे
दुश्मन ज़रूर है वो मगर बा-उसूल है

और अंजुम जी की आवाज़ में सुनिए-



राहत साहब की वेब-साइट का लिंक -
http://www.rahatindori.co.in/

Wednesday, January 13, 2010

विलास पंडित-ग़ज़लें और परिचय













1965 में जन्में विलास पंडित "मुसाफ़िर" बहुत अच्छे ग़ज़लकार हैं और अब तक तीन किताबें परस्तिश,संगम और आईना भी छाया हो चुकी हैं। कई गायकों ने इनके लिखे गीतों को आवाज़ भी दी है। पिछले 25 सालों से साहित्य की सेवा कर रहे हैं।

आज की ग़ज़ल पर इनकी तीन ग़ज़लें हाज़िर हैं- नीचे दिए गए संगीत के लिंक को आन कर लें ग़ज़लों का मज़ा दूना हो जाएगा।

एक

वो यक़ीनन दर्द अपने पी गया
जो परिंदा प्यासा रह के जी गया

झाँकता था जब बदन मिलती थी भीख
क्यों मेरा दामन कोई कर सी गया

उसमें गहराई समंदर की कहाँ
जो मुझे दरिया समझ कर पी गया

चहचहाकर सारे पंछी उड़ गए
वार जब सैय्याद का खाली गया

लौट कर बस्ती में फिर आया नहीं
बनके लीडर जब से वो दिल्ली गया

कोई रहबर है न है मंज़िल कोई
वो "मुसाफ़िर" लौट कर आ ही गया

रमल की मुज़ाहिफ़ शक़्ल
फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलुन


दो

भूल गया है खुशियों की मुस्कान शहर
पत्थर जैसे चहरों की पहचान शहर

बाशिंदे भी अब तक न पहचान सके
ज़िंदा भी है या कि है बेजान शहर

सोच ले भाई जाने से पहले ये बात
लूट चुका है लाखों के अरमान शहर

ज़िंदा है गाँवो में अब तक सच्चाई
दो और दो को पाँच करे *मीज़ान शहर

उसकी नज़रों में जो "मुसाफ़िर" शायर है
बस ख्वाबों की दुनिया का उनवान शहर

*मीज़ान-पैमाना (scale)

पाँच फ़ेलुन+1 फ़े

तीन

किसी का जहाँ में सहारा नहीं है
ग़मों की नदी का किनारा नहीं है

है अफसोस मुझको मुकद्दर में मेरे
चमकता हुआ कोई तारा नहीं है

ख़ुदा उस परी का तसव्वुर भी क्यूँ हो
जिसे आसमाँ से उतारा नहीं है

जो चाहो तो चाहत का इज़हार कर दो
अभी मैंने हसरत को मारा नहीं है

यूँ कहने को तो ज़िंदगी है हमारी
मगर एक पल भी हमारा नहीं है

ऐ ! मंज़िल तू ख़ुद क्यूँ करीब आ रही है
अभी वो "मुसाफिर" तो हारा नहीं है

मुत़कारिब(122x4) मसम्मन सालिम
चार फ़ऊलुन

संगीत और शायरी एक दूसरे के पूरक हैं तो सोचा क्यों न हर पोस्ट के साथ कुछ रुहानी ख़ुराक परोसी जाए । लीजिए सुनिए हरि प्रसाद चौरसिया की बांसुरी और विलास जी की ग़ज़लें पढ़ते रहिए-



शायर का पता-
301, स्वर्ण प्लाज़ा ,प्लाट न.-1109
स्कीम न.114-1,ए.बी रोड
इन्दौर
099260 99019
0731-4245859

कोई शाख़े-सब्ज़ हिला साईं- महमूद अकरम













शायर होना आसान है लेकिन वली होना बहुत मुशकिल है-

ये मसाइल-ए-तसव्वुफ़, ये तेरा बयान “ग़ालिब”
तुझे हम वली समझते, जो न बादाख़्वार होता

यूँ तो शायरी में गा़लिब का स्थान किसी औलिए से कम नहीं लेकिन ग़ालिब को महफ़िलों में गाया जाता है और कबीर को मंदिरों में। इस फ़र्क को गा़लिब समझते थे।

साईं इतना दीजिये, जा मे कुटुम समाय
मैं भी भूखा न रहूँ, साधु न भूखा जाय
..कबीर

पीरो-मुर्शिद, औलिये, संत,फ़कीर और वली इन्हें हम "साईं" कहकर बुलाते हैं, साईं यानि मालिक । पूज्य शिरडी के संत तो "साईं" नाम से ही जाने जाते हैं। साईं रदीफ़ पर एक बहुत सादा और तसव्वुफ़ के रंग में रंगी एक ग़ज़ल आज आपकी नज़्र कर रहा हूँ जिसके शायर हैं जनाब महमूद अकरम जो न्यू जर्सी में रहते हैं। उनकी ये ग़ज़ल दो साल पहले पढ़ी थी,आप भी मुलाहिज़ा कीजिए-

ग़ज़ल

मेरे हक़ में कोई दुआ साईं
बे-रंग हूँ, रंग चढ़ा साईं

मैं कौन हूँ,क्या हूँ, कैसा हूँ?
मैं कुछ भी नहीं समझा साईं

मेरी रात तो थी तारीक बहुत
मेरा दिन बे-नूर हुआ साईं

था छेद प्याले के अंदर
नहीं आँख में अश्क बचा साईं

वही तश्ना-लबी, वही खस्ता-तनी
मेरा हाल नहीं बदला साईं

गुम-कर्दा राह मुसाफ़िर हूँ
मुझे कोई राह दिखा साईं

मेरे दिल में नूर ज़हूर करे
मेरे मन में दीया जला साईं

मेरी झोली में फल-फूल गिरें
कोई शाख़े-सब्ज़ हिला साईं

मेरे तन का सहरा महक उठे
मेरी रेत में फूल उगा साईं

मुझे लफ़्ज़ों की ख़ैरात मिले
मेरा हो मज़मून जुदा साईं

मेरे दिल में तेरा दर्द रहे
हो जाए दिल दरिया साईं

कोई नहीं फ़क़ीर मेरे जैसा
कहाँ दहर में तुझ जैसा साईं

मेरी आँख में एक सितारा हो
मेरे हाथ में गुल-दस्ता साईं

तेरी जानिब बढ़ता जाऊँ मैं
और ख़त्म न हो रस्ता साईं

तेरे फूल महकते रहें सदा
तेरा जलता रहे दीया साईं

अब बात जब तसव्वुफ़ की चली है तो एक सूफ़ी कलाम सुनिए । ऐसे कलाम पर हज़ारों दीवान न्यौछावर, हज़ारों अशआर कुर्बान। इसे गाया है सूफ़ी गायक हंस राज हंस ने, जिसकी आवाज़ सुनते ही फ़क़ीरों की सोहबत का सा अहसास होता है-

Friday, January 8, 2010

डा० मधुभूषण शर्मा ‘मधुर’ की ग़ज़लें















1 अप्रैल 1951 में पंजाब में जन्मे डा० मधुभूषण शर्मा ‘मधुर’ अँग्रेज़ी साहित्य में डाक्टरेट हैं. बहुत ख़ूबसूरत आवाज़ के धनी ‘मधुर’ अपने ख़ूबसूरत कलाम के साथ श्रोताओं तक अपनी बात पहुँचाने का हुनर बाख़ूबी जानते हैं.इनका पहला ग़ज़ल संकलन जल्द ही पाठकों तक पहुँचने वाला है.आप आजकल डी०ए०वी० महविद्यालय कांगड़ा में अँग्रेज़ी विभाग के अध्यक्ष हैं.

"आज की ग़ज़ल" के पाठकों के लिए प्रस्तुत हैं इनकी 4 ग़ज़लें

एक

दूर के चर्चे न कर तू पास ही की बात कर
अपना घर तू देख पहले फिर किसी की बात कर

आ बता देता हूँ मैं,क्या चीज़ है ज़िंदादिली
मौत के साये तले तू ज़िंदगी की बात कर

तू ख़ुदा को पा चुका है मान लेता हूँ मगर
मैं तो ठहरा आदमी तू आदमी की बात कर

गुम न कर इन मंदिरों और मस्जिदों में तू वजूद
इन अँधेरों से निकलकर रौशनी की बात कर

ख़ुद-ब-ख़ुद लगने लगेगा ख़ुशनुमा तुझको जहान
हो पराई या कि अपनी तू ख़ुशी की बात कर

ताज का पत्थर नहीं तू रंग फीका क्यों पड़े
बात उल्फ़त की चले तो मुफ़लिसी की बात कर

जब कभी भी बात अपनी हो तुझे करनी ‘मधुर’
दश्त में चलते हुए इक अजनबी की बात कर

बहरे-रमल(मुज़ाहिफ़ शक्ल):
फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलुन
2122 2122 2122 212


दो

इक बार क्या मिले हैं किसी रोशनी से हम
फिर माँगते चिराग़ रहे ज़िन्दगी से हम

कुछ है कि निभ रहे हैं अभी ज़िन्दगी से हम
वर्ना क़रीब मौत के तो हैं कभी से हम

क़तरे तमाम धूप के पीता रहा बदन
तब रू-ब-रू हुए हैं कहीं चाँदनी से हम

जो रुख़ बदलने के लिए कोई वजह नहीं
कह दो कि पेश आ रहे हैं बेरुख़ी से हम

बस रंज है तो है यही ,हैं सब को जानते
कह सकते भी नहीं हैं मगर ये किसी से हम

बहरे-मज़ारे(मुज़ाहिफ़ शक़्ल)
मफ़ऊल फ़ाइलात मुफ़ाईल फ़ाइलुन
221 2121 1221 2 12

तीन

सियासत की जो भी ज़बाँ जानता है
बदलना वो अपना बयाँ जानता है

है ग़र्ज़ अपनी-अपनी ही पहचान सबकी
कि कोई किसी को कहाँ जानता है

हैं अंगार लब और लफ़्ज़ उसके शोले
महब्बत की जो दास्ताँ जानता है

दिलों की है बस्ती फ़क़त अपनी मस्ती
जहाँ के ठिकाने जहाँ जानता है

चलो हम ज़मीं के करें ख़्वाब पूरे
हक़ीक़त तो बस आसमाँ जानता है

मुत़कारिब-चार फ़ऊलुन (122x4)
मसम्मन सालिम

चार

ख़ता है वफ़ा तो सज़ा दीजिए
वगर्ना वफ़ा को वफ़ा दीजिए

नहीं आपको भूल सकता कभी
किसी और को ये सज़ा दीजिए

मुसाफ़िर हूँ मैं आप मंज़िल मेरी
कोई रास्ता तो दिखा दीजिए

है अब जीना-मरना लिए आपके
जो भी फ़ैसला है सुना दीजिए

लिखे हर्फ़ दिल पे मिटेंगे नहीं
मेरे ख़त भले ही जला दीजिए

सताए हुए दिल के सपने-सा हूँ
निगाहों से अपनी शफ़ा दीजिए

बहरे-मुतका़रिब( मुज़ाहिफ़ शक्ल)
फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊ
122 122 122 12

संपर्क-
दूरभाष:01892-265558,
मोबाइल :9816275575

Wednesday, January 6, 2010

एक ज़मीन में दो शायर












एक ज़मीन में दो शायरों की बराबर के मेयार की ग़ज़लें बड़ी मुशकिल से मिलती हैं। ये दोनों ग़ज़लें एक ही ज़मीन में हैं लेकिन दोनों बेमिसाल और लाजवाब हैं। पढ़िए, सुनिए और लुत्फ़ लीजिए-

पहली ग़ज़ल जनाब- अहमद नदीम कासमी की -

ग़ज़ल

कौन कहता है कि मौत आयी तो मर जाऊँगा
मैं तो दरिया हूँ समन्दर में उतर जाऊँगा

तेरा दर छोड़ के मैं और किधर जाऊँगा
घर में घिर जाऊँगा सहरा में बिखर जाऊँगा

तेरे पहलू से जो उट्ठूंगा तो मुश्किल ये है
सिर्फ़ इक शख्स को पाऊंगा जिधर जाऊँगा

अब तेरे शहर में आऊँगा मुसाफ़िर की तरह
साया-ए-अब्र की मानिंद गुज़र जाऊँगा

तेरा पैमाने-वफ़ा राह की दीवार बना
वरना सोचा था कि जब चाहूँगा मर जाऊँगा

चारासाज़ों से अलग है मेरा मेयार कि मैं
ज़ख्म खाऊँगा तो कुछ और सँवर जाऊँगा

अब तो खुर्शीद को डूबे हुए सदियां गुज़रीं
अब उसे ढ़ूंढने मैं ता-बा-सहर जाऊँगा

ज़िन्दगी शमअ‌ की मानिंद जलाता हूं ‘नदीम’
बुझ तो जाऊँगा मगर, सुबह तो कर जाऊँगा

और दूसरी ग़ज़ल है जनाब मुईन नज़र की -

इतना टूटा हूँ कि छूने से बिखर जाऊँगा
अब अगर और दुआ दोगे तो मर जाऊँगा

हर तरफ़ धुँध है, जुगनू , न चरागां कोई
कौन पहचानेगा बस्ती में अगर जाऊँगा

फूल रह जाएंगे गुलदानों में यादों की नज़र
मैं तो ख़ुशबू हूँ फ़ज़ाओं में बिखर जाऊँगा

पूछकर मेरा पता वक़्त राएगाँ न करो
मैं तो बंजारा हूँ क्या जाने किधर जाऊँगा

ज़िंदगी मैं भी मुसाफ़िर हूँ तेरी कश्ती का
तू जहाँ मुझसे कहेगी मैं उतर जाऊँगा

दोनों ग़ज़लें रमल की मुज़ाहिफ़ शक़्ल में हैं-
फ़ाइलातुन फ़'इ'लातुन फ़'इ'लातुन फ़ालुन
2122 1122 1122 22 / 112


अब सुनिए गु़लाम अली की आवाज़ में मुईन नज़र की ये खूबसूरत ग़ज़ल-

Saturday, January 2, 2010

स्वर्गीय लाल चन्द प्रार्थी - परिचय और ग़ज़लें
















(3 अप्रैल, 1915 -11 दिसम्बर, 1982)

स्वर्गीय लाल चन्द प्रार्थी ‘चाँद’ कुल्लुवी हिमाचल के आसमाने-सियासत और अदबी उफ़ुक़ के दरख़्शाँ चाँद थे. आप हिमाचल के नग्गर (कुल्लू) गाँव से थे. इनका कलाम बीसवीं सदी, शमअ और शायर जैसी देश की चोटी की उर्दू पत्रिकाओं में स्थान पाता था.कुल-हिन्द और हिन्द -पाक मुशायरों में भी इनके कलाम का जादू सुनने वालों के सर चढ़ कर बोलता था. आपने हिमाचल सरकार के कई मंत्री पदों को भी सुशोभित किया था. प्रस्तुत ग़ज़लें उनके मरणोपरान्त हिमाचल भाषा एवं कला संस्कृति विभाग द्वारा प्रकाशित संकलन ‘वजूद-ओ-अदम’से ली गई हैं . आज की ग़ज़ल के लिए इनका उर्दू से लिप्यान्तरण ‘द्विज’ जी ने किया है.

‘चाँद’ कुल्लुवी साहब की तीन ग़ज़लें-

एक

हर आस्ताँ पे अपनी जबीने-वफ़ा न रख
दिल एक आईना है इसे जा-ब-जा न रख

रख तू किसी के दर पे जबीं अपनी या न रख
दिल से मगर ख़ुदा का तसव्वुर जुदा न रख

अफ़सोस हमनवाई के मआनी बदल गए
मैंने कहा था साथ कोई हमनवा न रख

मंज़िल ही उसकी आह की आतिश से जल न जाए
हमराह कारवाँ के कोई दिलजला न रख

घर अपना जानकर हैं मकीं तेरे दिल में हम
हम ग़ैर तो नहीं हैं हमें ग़ैर-सा न रख

होता तो होगा ज़िक्र मेरा भी बहार में
मुझसे छुपा के बात कोई ऐ सबा न रख

आवाज़ दे कहीं से तू ऐ मंज़िले-मुराद
इन दिलजलों को और सफ़र-आशना न रख

वुसअत में इसकी कोनो-मकाँ को समेट ले
महदूद अपने ख़ाना-ए-दिल की फ़िज़ा न रख

अच्छा है साथ-साथ चले ज़िंदगी के तू
ऐ ख़ुदफ़रेब इससे कोई फ़ासला न रख

राहे-वफ़ा में तेरी भी मजबूरियाँ सही
इतना बहुत है दिल से मुझे तू जुदा न रख

रौशन हो जिसकी राहे-अदम तेरी याद में
उस ख़स्ता-तन की क़ब्र पे जलता दिया न रख

ऐ चाँद आरज़ूओं की तकमील हो चुकी
रुख़सत के वक़्त दिल में कोई मुद्दआ न रख

बहरे-मज़ारे की मुज़ाहिफ़ शक़्ल-
मफ़ऊल फ़ाइलात मुफ़ाईल फ़ाइलुन
221 2121 1221 212

दो

ख़ुशी की बात मुक़द्दर से दूर है बाबा
कहीं निज़ाम में कोई फ़तूर है बाबा

जो सो रहा है लिपट कर अना के दामन से
जगा के देख ये मेरा शऊर है बाबा

घटाएँ पी के भी सहरा की प्यास रखता हूँ
न जाने प्यास में कैसा सरूर है बाबा

भरी बहार में बैठे हैं हम अलम-व किनार
ज़रा बता कि ये किसका क़सूर है बाबा

तेरी निगाह में जो एक जल्वा देख लिया
मेरे लिए वही असरारे-तूर है बाबा

मये-निशात में देखा है झूमकर बरसों
मये-अलम में भी अब तो सरूर है बाबा

गुमान सुबहे-बदन है यक़ीन शामे-नज़र
ढला हुआ तेरे सांचे में नूर है बाबा

कभी कोई तो उसे जोड़ पाएगा शायद
अभी तो शीशा-ए-दिल चूर-चूर है बाबा

नमूदे-नौ में तेरे ही तस्व्वुराते-हसीं
तेरा ख़याल बिना-ए-शऊर है बाबा

मेरा वजूद तेरे शौक़ का नतीजा है
इसी लिए तो ये साए से दूर है बाबा

छुपा-छुपा के मैं रक्खूँ कहाँ इसे ऐ ‘चाँद’
मताए-ज़ीस्त ये तेरे हुज़ूर है बाबा

बहरे-मजतस की मुज़ाहिफ़ शक्ल:
म'फ़ा'इ'लुन फ़'इ'लातुन म'फ़ा'इ'लुन फ़ा'लुन
1212 1122 1212 22/112

तीन

फ़रेबे-ज़िंदगी है और मैं हूँ
बला की बेबसी है और मैं हूँ

वही संजीदगी है और मैं हूँ
वही शोरीदगी है और मैं हूँ

जहाँ मैं हूँ वहाँ कोई नहीं है
मेरी आवारगी है और मैं हूँ

बढ़ा जाता हूँ ख़ुद राहे-अदम पर
तुम्हारी रौशनी है और मैं हूँ

जनाज़ा उठ चुका है दिलबरी का
शिकस्ते-आशिक़ी है और मैं हूँ

तमाशाई हूँ अपनी हसरतों का
किसी की बेरुख़ी है और मैं हूँ

निगाहों में उधर बेबाकियाँ हैं
इधर शर्मिंदगी है और मैं हूँ

वहाँ ढूँढो मुझे ऐ ‘चाँद’ जाकर
जहाँ बस आगही है और मैं हूँ

हज़ज की मुज़ाहिफ़ शक़्ल
मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन फ़ऊलुन
1222 1222 122.

Friday, January 1, 2010

नव वर्ष पर-विशेष










ले उड़े इस जहाँ से धुआँ और घुटन
इक हवा ज़ाफ़रानी नये साल में

द्विज जी के इस शे’र के साथ इस साल की अंतिम पोस्ट आपकी नज़्र है। वसीम बरेलवी की एक ग़ज़ल आज पहली बार "आज की ग़ज़ल" पर छाया कर रहा हूँ, ग़ज़ल से पहले दो शे’र वसीम बरेलवी के-

न पाने से किसी के है, न कुछ खोने से मतलब है
ये दुनिया है इसे तो कुछ न कुछ होने से मतलब है

गुज़रते वक़्त के पैरों में ज़ंजीरें नहीं पड़तीं
हमारी उम्र को हर लम्हा कम होने से मतलब है

अब ये ग़ज़ल मुलाहिज़ा कीजिए-

कौन सी बात कहाँ , कैसे कही जाती है
ये सलीक़ा हो तो हर बात सुनी जाती है

जैसा चाहा था तुझे देख न पाये दुनिया
दिल में बस एक ये हसरत ही रही जाती है

एक बिगड़ी हुई औलाद भला क्या जाने
कैसे माँ-बाप के होंटों से हँसी जाती है

कर्ज़ का बोझ उठाये हुए चलने का अज़ाब
जैसे सर पर कोई दीवार गिरी जाती है

अपनी पहचान मिटा देना हो जैसे सब कुछ
जो नदी है वो समंदर से मिली जाती है

पूछना है तो ग़ज़ल वालों से पूछो जाकर
कैसे हर बात सलीक़े से कही जाती है

रमल की मुज़ाहिफ़ शक़्ल -
फ़ाइलातुन फ़'इ'लातुन फ़'इ'लातुन फ़ालुन
2122 1122 1122 22 / 112

निदा फ़ाज़ली की इस दुआ के साथ-
"चिड़ियों को दाने, बच्चों को गुड़धानी दे मौला"
इस साल को विदा कहते हैं और आने वाले साल का स्वागत करते हैं । जगजीत की मख़मली आवाज़ में इसे सुनिए-



Jagjit Singh - Garaj Baras Pyasi .mp3
Found at bee mp3 search engine


Wednesday, December 23, 2009

कृश्न कुमार 'तूर' साहिब की दो ग़ज़लें

















11 अक्तूबर 1933 को जन्मे जनाब—ए—कृश्न कुमार 'तूर' साहब ने उर्दू , अँग्रेज़ी और इतिहास जैसे तीन विषयों में एम.ए. किया है.आप हिमाचल प्रदेश के टूरिज़म विभाग में उच्च अधिकारी रह चुके हैं.आपका का क़लाम उर्दू जगत में प्रकाशित होने वाली लगभग सभी पत्रिकाओं में बड़े आदर से छपता है.भारत में आयोजित तमाम कुल—हिन्द और हिन्द—पाक मुशायरों में इन्हें बड़े अदब से सुना जाता है.
इनकी प्रसिद्ध किताबें हैं - आलम ऐन ; मुश्क—मुनव्वर; शेर शगुफ़्त ; रफ़्ता रम्ज़ ; सरनामा—ए—गुमाँ नज़री .'तूर' साहब अर्से से उर्दू में प्रकाशित सर सब्ज़ पत्रिका के सम्पादक हैं.पेश हैं इनकी तीन ग़ज़लें-

एक

मैं मंज़र हूँ *पस मंज़र से मेरा रिश्ता बहुत
आख़िर मेरी पेशानी पे सूरज चमका बहुत

जाने कौन से *इस्मे-अना के हम *ज़िन्दानी थे
तेरे नाम को लेकर हमने ख़ुद को चाहा बहुत

उनसे क्या रिश्ता था वो क्या मेरे लगते थे
गिरने लगे जब पेड़ से पत्ते तो मैं रोया बहुत

कैसी *मसाफ़त सामने थी और सफ़र था कैसा लहू
मैंने उसको उसने मुझको मुड़ के देखा बहुत

है दरिया के *लम्स पे नाज़ाँ इक काग़ज़ की नाव
सूरज से बातें करता है एक दरीचा बहुत

सारी उम्र किसी की ख़ातिर सूली पे लटका
शायद 'तूर' मेरे अन्दर इक शख़्स था ज़िन्दा बहुत

(6फ़ेलुन+1फ़े)
पस मंज़र=पृष्ठभूमि,*इस्मे-अना -अहम का नाम,ज़िन्दानी -कै़दी,मसाफ़त-सफ़र की दूरी,लम्स-स्पर्श

दो

अब सामने लाएँ आईना क्या
हम ख़ुद को दिखाएँ आईना क्या

ये दिल है इसे तो टूटना था
दुनिया से बचाएँ आईना क्या

इस में जो अक्स है ख़बर है
अब देखें दिखाएँ आईना क्या

क्या *दहर को *इज़ने-आगही दें
पत्थर को दिखाएँ आईना क्या

उस *रश्क़े-क़मर से वस्ल रक्खें
पहलू में सुलाएँ आईना क्या

हम भी तो मिसाले-आईना हैं
अब ‘तूर’ हटाएँ आईना क्या

रश्क़े-क़मर - चाँद से हसीन,*दहर -दुनिया,इज़्न-इजाज़त,आगही-जानकारी

बहरे-हज़ज की मुज़ाहिफ़ शक्ल
मफ़ऊलुन फ़ाइलुन फ़ऊलुन
222 212 122 या 2211 212 122

तीन

तेरे फ़िराक़ में जितनी भी अश्कबारी की
मिसाले-ताज़ा रही वो दिले-हज़ारी की

था कुछ ज़माने का बर्ताव भी *सितम आमेज़
थी लौ भी तेज़ कुछ अपनी अना-ख़ुमारी की

ये किसके नाम का अब गूँजता है अनहदनाद
ये कौन जिसने मेरे दिल पे मीनाकारी की

कभी-कभी ही हुई मेरी फ़स्ले-जाँ सर सब्ज़
कभी कभी ही मेरे इश्क़ ने पुकारी की

अगर वो सामने आए तो उससे पूछूँ मैं
ये किस की फ़र्दे-अमल मेरे नाम जारी की

सदा-ए-दर्द पड़ी भी तो बहरे कानों में
हमारे दिल ने अगर्चे बहुत पुकारी की

जो हम ज़माने में बरबाद हो गए हैं तो क्या
सज़ा तो मिलनी थी आख़िर ख़ुद अख़्तियारी की

जिसे न पासे महब्बत न दोस्ती का लिहाज़
ये ‘तूर’ तुमने भी किस बेवफ़ा से यारी की

*सितम आमेज़- जुल्म से भरा हुआ,अना-ख़ुमारी -अहम का नशा, अश्कबारी-आँसुओं की बरसात

बहरे-मजतस की मुज़ाहिफ़ शक्ल
म'फ़ा'इ'लुन फ़'इ'लातुन म'फ़ा'इ'लुन फ़ा'लुन
1212 1122 1212 22/ 112
सम्पर्क:134—E,Khaniyara Road,
Dharmshala—176215 (Himachal Pradesh)
फोन: 01892—222932 ; मोबाइल: 098160—20854

Saturday, December 19, 2009

संजीव गौतम की दो ग़ज़लें
















इस बार कुछ देरी से ये पोस्ट लगा रहा हूँ लेकिन अब कोशिश करूँगा कि आपको अच्छी ग़ज़लें पढ़वाता रहूँ। इस बार 1973 में जन्में संजीव गौतम की दो ग़ज़लें हाज़िर कर रहा हूँ। इन्होंने हिंदी मे एम.ए. की है और पत्र-पत्रिकाओं में अक्सर छपते रहते हैं। आशा है कि आपको ग़ज़लें पसंद आयेंगी।

ग़ज़ल

कभी तो दर्ज़ होगी जुर्म की तहरीर थानों में
कभी तो रौशनी होगी हमारे भी मकानों में

कभी तो नाप लेंगे दूरियाँ ये आसमानों की
परिंदों का यक़ीं क़ायम तो रहने दो उड़ानों में

अजब हैं माअनी इस दौर की गूँगी तरक़्क़ी के
मशीनी लोग ढाले जा रहे हैं कारख़ानों में

कहें कैसे कि अच्छे लोग मिलना हो गया मुश्किल
मिला करते हैं हीरे कोयलों की ही खदानों में

भले ही है समय बाक़ी बग़ावत में अभी लेकिन
असर होने लगा है चीख़ने का बेज़ुबानों में

नज़र-अंदाज़ ये दुनिया करेगी कब तलक हमको
हमारा भी कभी तो ज़िक्र होगा दास्तानों में

(बहरे-हज़ज सालिम)
मुफ़ाईलुनx4


ग़ज़ल

बंद रहती हैं खिड़कियाँ अब तो
घर में रहती हैं चुप्पियाँ अब तो

हमने दुनिया से दोस्ती कर ली
हमसे रूठी हैं नेकियाँ अब तो

उफ़! ये कितना डरावना मंज़र
बोझ लगती हैं बेटियाँ अब तो

खो गये प्यार, दोस्ती-रिश्ते
रह गयी हैं कहानियाँ अब तो

सिर्फ़् अपने दुखों को जाने हैं
ये सियासत की कुर्सियाँ अब तो

सबकी आँखों में सिर्फ़ ग़ुस्सा है
और हाथों में तख़्तियाँ अब तो

बहरे-खफ़ीफ़
फ़ाइलातुन मुफ़ाइलुन फ़ा’लुन
( 2122 1212 22/112 )

Saturday, November 21, 2009

तरही की अंतिम क़िस्त













मिसरा-ए-तरह "तुझे ऐ ज़िंदगी , हम दूर से पहचान लेते हैं" पर अंतिम दो ग़ज़लें

कुमार ज़ाहिद

वो जो दिल ही नहीं लेते हैं अक्सर जान लेते हैं
उन्हें हम बारहा दिल से दिलो-जां मान लेते हैं

ये गुल, गुलशन,ये शहरों की हंसीं रंगीनियां सारी
ये चादर नींद में ख्वाबों की है हम तान लेते हैं

कभी खुलकर नहीं रोती,कभी शिकवा नहीं करती
तुझे ऐ ज़िन्दगी हम दूर से पहचान लेते हैं

किसे मंज़िल नहीं मिलती, किसे रस्ता नहीं मिलता
सुना है मिलता है सब कुछ अगर हम ठान लेते हैं

सतपाल ख़याल

हम आँखें देखकर हर शख़्स को पहचान लेते हैं
बिना जाने ही अकसर हम बहुत कुछ जान लेते हैं

वही उतरा हुआ चहरा, वही कुछ सोचती आँखें
तुझ ऐ ज़िंदगी हम दूर से पहचान लेते हैं

ज़रा सा सर उठाता है खुशी का जब कोई अंकुर
घने बरगद ग़मों के इसपे सीना तान लेते हैं

बज़ुर्गों की किसी भी बात का गुस्सा नहीं करते
कि हम हर हाल में अपनी ही ग़लती मान लेते हैं

ज़रूरी तो नहीं हर काम का हासिल हो दुनिया में
तेरी गलियों की अक़सर खाक भी हम छान लेते हैं

ये जलवे हुस्न के का़तिल ख़याल इनसे बचे रहना
ये दिल लेते हैं पहले और फिर ये जान लेते हैं

Monday, November 16, 2009

पाँचवीं क़िस्त















मिसरा-ए-तरह "तुझे ऐ ज़िंदगी , हम दूर से पहचान लेते हैं" पर अगली दो ग़ज़लें

तिलक राज कपूर 'राही' ग्‍वालियरी

दिखा कर ख़ौफ़ दुनिया के जो हमसे दान लेते हैं
मना कर दें अगर हम तो भवें वो तान लेते हैं

तआरुफ़ मांगते होंगे नये कुछ लोग मिलने पर
तुझे ऐ ज़िन्‍दगी हम दूर से पहचान लेते हैं

यहाँ सीधी या सच्‍ची बात सुनता कौन है लेकिन
मसालेदार खबरें लोग कानों-कान लेते हैं

हमारे घर हैं मिट्टी के मगर पत्‍थर की कोठी पर
अगर हम जोश में आयें तो मुट्ठी तान लेते हैं

हजारों इम्तिहां हम दे चुके पर देखना है ये
नया इक इम्तिहां अब कौन सा भगवान लेते हैं

ये पटियेबाज भोपाली भला कब नापकर फेंकें
यकीं हमको नहीं होता मगर हम मान लेते हैं

तबीयत और फितरत कुछ अलग ‘राही’ने पाई है
वो अपने काम के बदले बस इक मुस्‍कान लेते हैं

तेजेन्द्र शर्मा

बिना पूछे तुम्हारे दिल की बातें जान लेते हैं
खड़क पत्तों की होती है तुम्हें पहचान लेते हैं

भला सीने में मेरे दिल तुम्हारा क्यूं धड़कता है
यही बस सोच कर हम अपना सीना तान लेते हैं

अलग संसार है तेरा, अलग दुनियां में रहता मैं
मेरी दुनियां में तेरा नाम सब अनजान लेते हैं

कभी मुश्किल हमारा रास्ता कब रोक पाई है
वो मंज़िल मिल ही जाती है जिसे हम ठान लेते हैं

चौथी क़िस्त















मिसरा-ए-तरह "तुझे ऐ ज़िंदगी , हम दूर से पहचान लेते हैं" पर अगली दो ग़ज़लें

प्रेमचंद सहजवाला

सफ़र मंज़िल का मुश्किल है क़दम ये जान लेते हैं
तुझे ऐ जिंदगी हम दूर से पहचान लेते हैं

ग़ज़ल कहना तो आला शाइरों का काम होता है
मगर नादाँ इसे कहना समझ आसान लेते हैं

चुनावों में तो रौनक़ सी नज़र आती है हर जानिब
हमारे गाँव में डाकू भी मूंछें तान लेते हैं

हमें तहज़ीब का रस्ता वो लाठी से सिखाते हैं
मगर हम लोग उन की असलियत को जान लेते हैं

अगरचे आप फ़ितरत से ही तानाशाह लगते हैं
कहा हम आप का फिर भी हमेशा मान लेते हैं

जवानों की न हिम्मत पर कभी हैरान हो साथी
वही करते हैं वो जांबाज़ जो कुछ ठान लेते हैं

शाहिद मिर्ज़ा शाहिद

बुज़ुर्गों के तजुर्बे का कहां अहसान लेते हैं
वही करते हैं बच्चे दिल में जो भी ठान लेते हैं.

हमारी कश्तियाँ हैं सब की सब सागर की हमजोली
हमारे *अज़्म से टक्कर कहां तूफान लेते हैं

महक जाती हैं ये सांसें तेरे आने की आहट से
तुझे ऐ जिन्दगी हम दूर से पहचान लेते हैं

मुहब्बत की अदालत में दलीलें चल नहीं पातीं
वो खु़द को बावफ़ा कहते हैं तो हम मान लेते हैं

हमारी गु़फ्तगू में एक ये मुश्किल तो है 'शाहिद'
ग़ज़ल के वास्ते अल्फाज़ भी आसान लेते हैं

*अज्म-दृढ़ प्रतिज्ञा, मज़बूत इरादा

Saturday, November 14, 2009

तरही की तीसरी क़िस्त















मिसरा-ए-तरह "तुझे ऐ ज़िंदगी , हम दूर से पहचान लेते हैं" पर अगली दो ग़ज़लें

गौतम राजरिषी

हमारे हौसलों को ठीक से जब जान लेते हैं
अलग ही रास्ते फिर आँधी औ’तूफ़ान लेते हैं

लबादा कोई ओढ़े तू मगर हम जान लेते हैं
तुझे ऐ जिंदगी हम दूर से पहचान लेते हैं

बहुत है नाज़ रुतबे पर उन्हें अपने, चलो माना
कहाँ हम भी किसी मग़रूर का अहसान लेते हैं

तपिश में धूप की बरसों पिघलते हैं ये परबत जब
जरा फिर लुत्फ़ नदियों का ये तब मैदान लेते हैं

हुआ बेटा बड़ा हाक़िम, भला उसको बताना क्या
कि करवट बाप के सीने में कुछ अरमान लेते हैं

हो बीती उम्र शोलों पर ही चलते-दौड़ते जिनकी
कदम उनके कहाँ फिर रास्ते आसान लेते हैं

इशारा वो करें बेशक उधर हल्का-सा भी कोई
इधर हम तो खुदा का ही समझ फ़रमान लेते हैं

है ढ़लती शाम जब तो पूछता है दिन थका-सा रोज
सितारे डूबते सूरज से क्या सामान लेते हैं?

पूर्णिमा वर्मन

मुसीबत में किसी का हम नहीं अहसान लेते हैं
ग़मों की छाँह में खुशियों की चादर तान लेते हैं

कभी बारूद से उड़ जायगी सोचा नहीं करते
परिंदे प्यार से दीवार को घर मान लेते हैं

दया, ईमान, सच, इख़्लाक़ ,सब कुछ बेज़रूरत हैं
घरों में लोग तो बस शौक़ के सामान लेते हैं

कभी खुशियों की बौछारें,कभी बरसात अश्कों की
तुझे ऐ ज़िंदगी हम दूर से पहचान लेते हैं

भले ही दूर हो मंज़िल मगर मिल जाएगी इक दिन
यही बस सोचकर आगे को चलना ठान लेते हैं

Friday, November 13, 2009

तरही की दूसरी क़िस्त














मिसरा-ए-तरह "तुझे ऐ ज़िंदगी , हम दूर से पहचान लेते हैं" पर अगली दो ग़ज़लें

गिरीश पंकज

मुहब्बत में ग़लत को भी सही जब मान लेते हैं
वो कितना प्यार करते हैं इसे हम जान लेते हैं

मैं आशिक हूँ, दीवाना हूँ, न जाने और क्या-क्या हूँ
मुझे अब शहर वाले आजकल पहचान लेते हैं

अचानक खुशबुओं का एक झोंका-सा चला आये
बहुत पहले से उन कदमों की आहट जान लेते हैं

मुझे जब खोजना होता है तो बेफिक्र हो कर के
मेरे सब यार मयखानों के दर को छान लेते हैं

मुझे दुनिया की दौलत से नहीं है वास्ता कुछ भी
है जितना पैर अपना उतनी चादर तान लेते हैं

कोई भी काम नामुमकिन नहीं होता यहाँ पंकज
वो सब हो जाता है पूरा अगर हम ठान लेते हैं

चंद्रभान भारद्वाज

हवा का जानकर रूख हम तेरा रूख जान लेते हैं
तुझे ऐ ज़िन्दगी हम दूर से पहचान लेते है

हमारी बात का विश्वास क्यों होता नहीं तुझको
कभी हम हाथ में गीता कभी कुरआन लेते हैं

जरूरत जब कभी महसूस करते तेरे साये की
तेरी यादों का आँचल अपने ऊपर तान लेते हैं

उदासी से घिरा चेहरा तेरा अच्छा नहीं लगता
तुझे खुश देखने को बात तेरी मान लेते हैं

न कोई जान लेते हैं न लेते माल ही कोई
फकत वे आदमी का आजकल ईमान लेते हैं

हज़ारों बार आई द्वार तक हर बार लौटा दी
बचाने ज़िन्दगी को मौत का अहसान लेते हैं

सिमट आता है यह आकाश अपने आप मुट्ठी में
जहाँ भी पंख 'भारद्वाज' उड़ना ठान लेते हैं

Wednesday, November 11, 2009

तरही की तीसरी क़िस्त















मिसरा-ए-तरह "तुझे ऐ ज़िंदगी , हम दूर से पहचान लेते हैं" पर अगली दो ग़ज़लें

गौतम राजरिषी

हमारे हौसलों को ठीक से जब जान लेते हैं
अलग ही रास्ते फिर आँधी औ’तूफ़ान लेते हैं

लबादा कोई ओढ़े तू मगर हम जान लेते हैं
तुझे ऐ जिंदगी हम दूर से पहचान लेते हैं

बहुत है नाज़ रुतबे पर उन्हें अपने, चलो माना
कहाँ हम भी किसी मग़रूर का अहसान लेते हैं

तपिश में धूप की बरसों पिघलते हैं ये पर्वत जब
जरा फिर लुत्फ़ नदियों का ये तब मैदान लेते हैं

हुआ बेटा बड़ा हाक़िम, भला उसको बताना क्या
कि करवट बाप के सीने में कुछ अरमान लेते हैं

हो बीती उम्र शोलों पर ही चलते-दौड़ते जिनकी
कदम उनके कहाँ फिर रास्ते आसान लेते हैं

इशारा वो करें बेशक उधर हल्का-सा भी कोई
इधर हम तो खुदा का ही समझ फ़रमान लेते हैं

है ढ़लती शाम जब तो पूछता है दिन थका-सा रोज
सितारे डूबते सूरज से क्या सामान लेते हैं?

मुसीबत में किसी का हम नहीं अहसान लेते हैं
ग़मों की छाँह में खुशियों की चादर तान लेते हैं


पूर्णिमा वर्मन

कभी बारूद से उड़ जायगी सोचा नहीं करते
परिंदे प्यार से दीवार को घर मान लेते हैं

दया, ईमान, सच, इखलाक़ सब कुछ बेज़रूरत हैं
घरों में लोग तो बस शौक के सामान लेते हैं

कभी खुशियों की बौछारे,कभी बरसात अश्कों की
तुझे ऐ ज़िंदगी हम दूर से पहचान लेते हैं

भले ही दूर हो मंजिल मगर मिल जाएगी इक दिन
यही बस सोचकर आगे को चलना ठान लेते हैं